राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एन.सी.एस.टी.सी.), “विज्ञान तकनीक एण्ड डेवलेपमेन्ट इनीशियेटिव (स्टाड) तथा भारतीय विज्ञान लेखक संघ (इस्वा) द्वारा उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में 20-23 फरवरी को “रचनात्मक विधाओं द्वारा विज्ञान संचार” विषयक चार दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्टी का आयोजन किया गया। होटल मधुबन में आयोजित इस संगोष्ठी में देश भर के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों, विज्ञान संचारकों, विज्ञान लेखकों और कथाकारों के अतिरिक्त विभिन्न विश्वविद्यालयों के जनसंचार व विज्ञान संचार विभागों के अध्यक्षों एवं विद्यार्थियों ने उक्त विषय पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये।
महामहिम राज्यपाल श्री बी0एल0 जोशी ने दीप जलाकर समारोह का उदघाटन किया। कार्यक्रम में शामिल होने वाले प्रमुख वक्ताओं में संगोष्ठी के संयोजक और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी संचार परिषद के निदेशक डा0 मनोज पटैरिया, वैज्ञानिक एवं अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक प्रो0 श्रीकृष्ण जोशी, एयर मार्शल विश्व मोहन तिवारी, इस्वा के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 धीरेन्द्र शर्मा, प्रख्यात कवि डा0 दिविक रमेश, बाल भवन, दिल्ली की पूर्व निदेशिका डा0 मधु पंत, वैज्ञानिक श्री एल0डी0 काला, साइंस रिपोर्टर की सहायक संपादिका श्रीमती विनीता सिंघल विज्ञान कथाकार श्री जीशान हैदर जैदी एवं श्री इरफान हयूमन आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस अवसर पर लेखक जाकिर अली "रजनीश" द्वारा प्रस्तुत शोधपत्र "विज्ञान कथाओं द्वारा विज्ञान संचार" को श्रेष्ठ शोधपत्र के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार वैज्ञानिक एवं अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक प्रो0 श्रीकृष्ण जोशी ने प्रदान किया। इन पंक्तियों के लेखक ने अपने उदबोधन में उपरोक्त विषयक शोधपत्र के वाचन के साथ-साथ "साइंस फिक्शन इन इंडिया" "रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग", "उन्मुक्त", "ई-पंडित", "सारथी", "हिन्द युग्म" आदि द्वारा विज्ञान एवं टेक्नालॉजी के प्रचार-प्रसार के लिए किये जा रहे विशेष प्रयासों की भी चर्चा की। अन्य वक्ताओं ने भी ब्लॉग की बढती लोकप्रियता पर प्रसन्नता व्यक्त की और विज्ञान संचार के लिए उसके उपयोग पर बल दिया।
Science fiction in India has lately emerged as a respectable literary genre. Please join me to have a panoramic view of Indian science fiction.
Sunday, February 24, 2008
Thursday, February 21, 2008
मनचाही संतान
मित्रों ,मेरी यह विज्ञान कथा नवनीत के ताजे ,फरवरी ,०८ अंक मे छपी है ,आप की सेवा मे प्रस्तुत है - मनचाही संतान
``हैलो, मैं डॉ0 आशुतोष निगम बोल रहा हूँ , क्या यह जेनटिक कम्पनी का मुख्यालय है ? ´´
``जी हाँ , मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ ?´´ उधर से एक सुरीली आवाज सुनायी पड़ी।
``मुझे कम्पनी के इंजीनियर मिस्टर आनन्द मुखर्जी से एपाइन्टमेंट चाहिए´´, डॉ0 निगम ने संयत स्वरों में जवाब दिया।
``होल्ड आन सर´´
डॉ0 निगम को उन चन्द लम्हों का इन्तजार ऐसा लगा जैसे सदियां गुजर गयी हैं। उनका धैर्य बस टूटने ही वाला था कि फिर वही सुरीली आवाज फोन पर गूंज उठी।
``आज ही शाम को चार बजे सर।´´
``ऑ के ´´ डॉ0 निगम ने उत्साह के साथ कहा और फोन का स्विच ऑफ कर दिया। कुछ पल वे किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे फिर विजियोफोन के एक नम्बर पर उंगली से हल्का सा स्पर्श किया। सामने स्क्रीन पर एक महिला की तस्वीर उभर आयी। यह महिला और कोई नहीं डॉ0 निगम की ही पत्नी श्रीमती मधुरिमा निगम थीं.
``मधुरिमा, मैंने जेनटिक इंजीनियर डॉ0 आनन्द से एपाइंटमेंट ले लिया है। आज ही शाम का चार बजे मैं तुम्हें भी साथ लेकर चलूँगा ´´
``नहीं, आप आप अकेले ही जाइये मैं आपके साथ नहीं जा पाऊँगी , मुझे अपनी पेटिंग का अधूरा काम आज ही पूरा करना है .. कल से ही प्रदर्शनी शुरू होने वाली है, जिसमें मैंने अपनी एक ताजातरीन पेंटिंग डिस्प्ले करने का वायदा कर रखा है ऑर फिर आपके एकल निर्णय में मैं भागीदार नही हूँ ,´´ आपको एक शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए, मुझे कलात्मक अभिरूचि की सन्तान, चाहे वह लड़का हो या लड़की मेरे लिए एक समान है´´ श्रीमती मधुरिमा की आवाज सहसा आक्रोश से भर उठी थी और विजियोफोन के स्क्रीन पर उनके तमतमाये हुए चेहरे की लालिमा साफ दिख रही थी।
``ओह! मधु डियर, तुम फिर शुरू हो गयी ... आज अन्तिम तौर पर हमने सुबह यह निर्णय लिया था कि हमारी सन्तान एक शल्य चिकित्सक ही होगी ´´
``मै फिर कहूंगी कि यह आपका अपना निर्णय है, मेरी सहमति न होने के बावजूद भी मैंने आपको अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार दे दिया था। मुझे क्या ....मुझे कोई बच्चा थोड़े ही जनना है, वह मेरे पेट में भी तो नहीं पलेगा... मेरी एक डिम्ब कोशिका ही तो चाहिए, वह मैं दे दूंगी , उसके बाद आप जाने और आपका वह जेनटिक इंजीनियर ,इस विषय पर मुझे अब और डिस्टर्ब मत कीजिए ... प्लीज ... ``इसके पहले कि डॉ निगम कोई प्रतिक्रिया करते उधर से श्रीमती मधुरिमा ने सम्पर्क विच्छेद कर दिया था।
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`` डॉ0 निगम! ये रहे विश्व के जाने माने शल्य चिकित्सों की वे स्टेम कोशिकायें, जिनसे मैंने उन जीन पैटर्न को अलग कर लिया है, जिनमें एक शल्य चिकित्सक की विशेषतायें जैसे उंगलियों की बनावट आदि, छुपी हुई है। एक शल्य चिकित्सक के दोनों हाथों की उंगलियों की बनावट, कारीगरी और उसकी त्रिविमीय दृष्टि के कुशल समंजन से ही जटिल से जटिल शल्य चिकित्सा भी आसान हो जाती है ... इन सारे गुणों के वाहक जीन आपके पुत्र में भ्रूणावस्था के दौरान ही प्रत्यारोपित कर दिये जायेगें, जिससे आपका पुत्र एक होनहार शल्य चिकित्सक बन सकेगा।´´ डॉ0 निगम की मुखमुद्रा बता रही थी कि वे डॉ0 मुखर्जी की तकरीर से काफी प्रभावित थे।
``मगर एक मुश्किल यह है डॉ0 ममुखर्जी कि मेरी पत्नी शल्य चिकित्सक के बजाय कलात्मक अभिरूचि ऑर वह भी एक पेन्टर को सन्तान के रूप में चुनना चाहती हैं अब भला आप ही बताइये कि इस देश में एक चित्रकार का भला क्या भविष्य है? सभी पाब्लो पिकासो.. राजा रवि वर्मा या नन्दलाल बोस तो नहीं हो सकते। मेरी पत्नी को ही देखिये, आधी से ज्यादा उम्र गुजर गयी है, अब जाकर एक चित्रकार के रूप में उनकी कुछ पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पायी है .. महज मान-सम्मान ही तो सब कुछ नहीं है, जीवन की तमाम भौतिक आवश्यकतायें भी तो हैं ... डॉ0 निगम भावातिरेक में बहक उठे थे कि तभी डॉ0 मुखर्जी ने उन्हे सायास रोका।
``डॉ0 निगम, यह आपका पारिवारिक मामला है, मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे तो बस आपकी पत्नी की एक डिम्ब कोशिका चाहिए । किराये की कोख यहाँ उपलब्ध है। मेरा आशय धाय माँ के रूप में वालिन्टयर से है, जिसकी व्यवस्था भी हमारी कम्पनी करती है ....हाँ , इसका पेमेन्ट आपको अलग से करना होगा और पूरे नौ महीने इसके गुजारे भत्ते की राशि भी आपको जमा करनी होगी। आखिर आपका सर्जन पुत्र उसकी कोख में ही तो पलेगा ।´´
``जी, जी, मैं सारा व्यय भार उठाने को तैयार हूँ , बस मुझे एक होनहार शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए ।´´ डॉ0 निगम की आवाज में अनुनय का आग्रह था। ``तो फिर ठीक है, काउन्टर पर निर्धारित धनराशि जमा कर दीजिये और भ्रूण आरोपण की तिथि भी वहीं से ले लीजिए ... आपके शुक्राणु और श्रीमती निगम की अण्ड कोशिका प्राप्त करने की तारीख भी आपको वहीं मिल जायेगी।´´ डॉ0 मुखर्जी ने अपनी रिस्ट वाच की ओर देखा जिसका अर्थ था कि डॉ0 निगम से उनके मुलाकात का समय पूरा हो चुका था।
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टेस्ट ट्यूब विधि से बाह्य निषेचन की प्रक्रिया यानि इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अब एक आम चिकित्सकीय घटना बन चुकी थी। लिहाजा डॉ0 निगम के वाई शुक्राणु और उनकी पत्नी मधुरिमा द्वारा दिये गये डिम्ब कोष के संयोग से जेनटेक कम्पनी की प्रयोगशाला में निषेचन की प्रक्रिया सहजता से पूरी कर ली गयी थी और आरिम्भक भ्रूणीय विकास के समय ही अतिसूक्ष्म इंजेक्शन प्रणाली से दुनिया के कई मशहूर शल्य चिकित्सकों के चुनिन्दा जीन भी भ्रूण में प्रविष्टि करा दिये गये थे। यह जैवीय रचना अब चिकित्सा विज्ञान के शब्दों में जेनेटिकली माडीफाइड आर्गैनिज्म का दर्जा पा चुकी थी। इसे एक धाय माँ के कोख की जरूरत थी ऑर वह भी यथा समय मुहैया करा दी गयी थी। भावी शिशु के धाय माँ की पहचान उजागर नहीं की गयी थी, किन्तु उसकी देखभाल और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी जेनटेक कम्पनी की थी। जेनटेक जैसी कइ दूसरी कम्पनियों की बदौलत किराये की कोख का व्यवसाय फूल-फल रहा था। गरीबी और भूख से बेहाल बेरोजगारों की विशाल फौज को विज्ञान की दुनिया का नया तोहफा मानो रास आ गया था। ऐसे मामलों में एक अनुबन्ध के जरिये दोनों पक्षों यानि कोखदाता और सन्तान के इच्छुक दम्पति एक दूसरे की पहचान से अनभिज्ञ रहते थे ताकि भविष्य में किसी तरह के सामाजिक, नैतिक या फिर कानूनी जटिलताओं से बचा सके। समय तेजी से बीत रहा था।
किराये की कोख में भ्रूण आरोपण के ठीक 276वें दिन डॉ0 निगम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। प्रसव प्रक्रिया जेनटेक कम्पनी के एक गोपनीय कक्ष में सम्पन्न हुई थी। मा¡-बाप के जेनेटिक मेकअप से बच्चे के डी एन ऐ फिंगर प्रिंट के मिलान से पैतृकता की पुष्टि के बाद जेनटिक कम्पनी ने नवजात शिशु को निगम दम्पत्ति को सौंप दिया था। डॉ0 निगम के यहाँ समारोह सा माहौल था। लोगों की बधाइयों का तांता लगा हुआ था। डॉ0 निगम की भी खुशी का कोई पारावार नहीं .था ... उन्होंने नवजात का प्यारा सा नाम रखा था- मनस्वी। इनका दृढ़ विश्वास था कि आगे उनका यही पुत्र एक प्रख्यात शल्य चिकित्सक बनेगा और परिवार की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगायेगा।
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``ललित कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए एक विशिष्ट पुरस्कार डॉ0 मनस्वी निगम को दिया जाता है। सभागार में समवेत करतल ध्वनि गूँज उठी जिसमें उद्घोषक के आगे के शब्द अनसुने रह गये। अगले ही पल डॉ0 मनस्वी निगम मंच पर विराजमान थे। उत्साहित दर्शकों की अहिर्नश, अनवरत तालियाँ मानों निर्णायक मंडल के निर्णय पर अपनी मुहर लगा रही थीं। पेशे से एक चिकित्सक होने के बावजूद डॉ0 निगम ने ललित कला के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी ... अभी उनकी उम्र ही कितनी थी``जीवेत शरद: शतम´´ की आयु स्केल पर उनके जीवन का यह २५वां बसन्त ही तो था। पिछले ही वर्ष उन्हें शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में अभिनव शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। ऑर आज सहस्त्राब्दी चिकित्सा महाविद्यालय के ``एलुमिनी मीट´´ यानि पूर्व छात्र मिलन समारोह के अवसर पर ललित कला के एक पारखी के रुप में उन्हें सम्मानित किया जा रहा था। ..डॉ0 निगम ने उद्बोधन के औपचारिक आग्रह को सहज ही स्वीकार कर लिया था। प्रेक्षागृह की निस्तब्धता यह इंगित कर रही थी कि श्रोतागण उन्हें पूरी तन्मयता से सुनने को उद्यत थे। डॉ0 निगम भाव विह्वल हो उठे ...... उनके शब्द भावपूर्ण किन्तु संयत संबोधन में उनके मुहँ से नि:सृत एक-एक शब्द श्रोतागण ध्यान से सुन रहे थे .....
." आप शायद विश्वास न करें किन्तु मेरी अभी तक की जिन्दगी विडम्बनाओं से भरी रही है ... मेरे पिताजी का निर्णय था कि मैं चिकित्सा के क्षेत्र में ही अपने परिवार का नाम रोशन करूं , क्योंकि चिकित्सा ही मेरा पारम्परिक ऑर पारिवारिक व्यवसाय रहा है। मेरे स्वर्गवासी माता-पिता ने चिकित्सा को ही आजीविका के रूप में अपनाते हुए समाज की आजीवन सेवा की ... उनके वंश परम्परा में चिकित्सा सेवा का क्रम चलता रहे इसलिए मेरे जन्म से पहले ही उनहोंने मुझे चिकित्सक बनाने का संकल्प ले लिया था ...वे ``चिकित्सात पुण्यतमों न किंचित´´ अर्थ्हत चिकित्सा के समान दूसरा कोई पुण्य नहीं है, के पक्षधर थे ... ``डॉ0 निगम पल भर के लिए रूके, मेज से पानी का गिलास उठाया , शुष्क हो रहे गले को आर्द्र किया और फिर बोल पड़े,
``मेरे माता-पिता मुझे शल्य चिकित्सक के रूप में देख्ना चाहते थे, मेरी घोर अनिच्छा के बावजूद कला विषयों के बजाय मुझे प्राणीशास्त्र में दाखिला दिलाया गया। उफ्फ। मेढ़कों के चीर-फाड़ से शुरू हुई शल्य चिकित्सा का पाठ मेरे लिए बहुत पीड़ादायी था। कैंची और चिमटी के बजाय तूलिका-ब्रशों का संस्पर्श मेरी उंगलियों में नयी स्पूर्ति भर देता लेकिन मेरे पिता जी को तो मुझे शल्य चिकित्सक बनाने की धुन सवार थी। मुझे अच्छी कोचिंग दिलवाई गयी ..... मेडिकल इन्ट्रेन्स टेस्ट में मैं चुन भी लिया गया ऑर फिर इस मेडिकल कॉलेज में दाखिला हुआ। सेमेस्टरों और परीक्षाओं का दौर ...एम0बी0बी0एस0 ...एम0एस0 ऑर फिर इसी विश्वविद्यालय से शल्य चिकित्सा के ही नये पहलुओं पर मैंने पी-एच0डी0 भी कर ली ... लेकिन इस व्यस्त जीवनचर्या में भी मेरा अन्तर्मन रंगों के नित नये संयोजनों को ही संजोता रहता। मेरे इस अंकिंचन योगदान को सम्मान योग समझा गया ... मैं आभारी हूँ धन्यवाद।´´´ अन्तिम वाक्य तक आते-आते डॉ0 निगम का गला भर आया था। वे अतिशय भावुक हो उठे थे। एलुमिनी मीट के मनोरंजक सांस्कृतिक कार्यक्रमों को छोड़कर कुछ अनमनस्क से वे घर लौट आये थे। घर में भी डॉ0 निगम का मन अशान्त सा बना रहा । चिकित्सा कर्म उनका पेशा था और चित्रकारिता उनका शौक। एक उनकी जीविका थी तो दूसरा मानो उनका जीवन। जीविका और जीवन के इस अंतर्द्वंद में बुरे फंसे थे डॉ0 निगम। अभी उनके कैरियर की यह शुरूआत भर थी ऑर चिकित्सा जैसी सम्भावनाओं से भरे पेशे को अलविदा करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे। उनके बुजुर्ग परिजनों और सहयोगियों ने उन्हें समझाया था कि महज कला के सहारे उनकी जीवन नैया पार नहीं लगने वाली हैं इसी उधेड़बुन और विचार मंथन में डॉ0 निगम की पलकें बोिझल हो उठी ....उन्हें निद्रा देवी ने अपने आगोश में ले लिया था।
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समय चक्र तेजी से घूम रहा था। डॉ0 मनस्वी निगम पेशे से तो चिकित्सक थे किन्तु उनकी ख्याति एक शल्य चिकित्सक के बजाय एक चित्रकार के रूप में उभर रही थी। शल्य चिकित्सा के अपने पुश्तैनी धन्धे का वे बस निर्वाह ही कर पा रहे थे। इसी दौरान वे अपनी एक चिकित्सक सहपाठी डॉ0 मानुषी से परिणय सूत्र में बंध गये थे। वेसे तो धन-वैभव और सम्पत्ति के विस्तार में डॉ0 निगम दूसरे चिकित्सकों की तुलना में काफी पिछड़ गये थे, किन्तु वे सन्तुष्ट थे। शल्य चिकित्सा से तो जैसे उन्होंने मुहँ ही मोड़ लिया था। उनका मन इस पेशे से उचट गया था। जिस कुशलता से उनकी उंगलिया रंगों की तूलिका संभालती थी, शल्य क्रिया के समय मानों वे बेदम हो जाती थीं। वैसे शल्य क्रिया में आज भी उनकी कोई सानी नहीं थी ऑर जटिल से भी जटिल शल्य क्रिया को वे जिस सहजता और कुशलता से अंजाम दे देते थे उनके प्रतिद्वन्द्वी तक भी उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे। किन्तु इस पुश्तैनी काम से उनका मन विरत सा हो गया था। कभी-कभी जब जीवन की इस विडम्बना भरी परिणति से उनका मन अवसाद से भर उठता तब उनकी सहचरी श्रीमती मानुषी उनको उत्साहित करतीं, उनका मनोबल बढ़ाती। फिर भी कुछ घटनायें ऐसी घटती कि डॉ0 मनस्वी को गहरा आघात लगता। अभी उसी दिन तो भारत के राष्ट्रपति को जब उन्होंने एक तैलचित्र भेंट करना चाहा था तो राष्ट्रपति ने उन्हें यह नसीहत दे डाली थी कि अच्छा होता वे एक चित्रकार के रूप में ही शिक्षित हुए होते, नाहक ही उन्हें डाक्टर बनाने पर एक गरीब देश का काफी पैसा बरबाद हुआ। इस घटना ने उन्हें मार्मिक चोट पहु¡चायी थी। किन्तु मानुषी की आत्मीयता और सतत् प्रोत्साहन ने जल्दी ही इस घाव को भर दिया था। उन्होंने अब चित्रकारिता को ही जीवन का ध्येय बना लिया था और इसी ध्येय की प्राप्ति में वे प्राणप्रण से जुट गये थे। शीघ्र ही राष्ट्रीय ऑर अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक चित्रकार के रूप में उनकी पहचान बनने लगी थी और अब जब यूनेस्को ने भी ललित कला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया तो भारत का भी नाम गौरव से ऊंचा उठ गया था। जीवन के प्रति अब तक के उनके सारे गिले-शिकवे दूर हो गये थे। आखिर वे अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शिख्सयत जो बन गये थे।
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वह एक ऐसी ही सुरमई शाम थी जैसी कि डॉ0 मनस्वी ने अपनी एक पेिन्टग में उकेरी थी। डूबते हुए सूरज की शनै: शनै: धु¡धलाती लालिमा ऑर वृक्षों की अन्तहीन सी होती परछाईयाँ मानों कोई गुप्त सन्देश दे रही थी। अचानक ही डॉ0 निगम को अहसास हुआ कि यह सन्देश तो खुद उन्ही के लिए ही था। उनके जीवन का चालीसवां बसन्त पूरा होने को आया था ... प्रकृति मानों उन्हें एक सूक्षम संकेत दे रही थी। वंश-वृिद्ध का संकेत। जिसे समझने में उन्होंने देर नहीं की। वे तुरत-फरत विजियोफोन पर एक नम्बर डायल करने लगे। अगले ही पल मशहूर जेनटिक कम्पनी की एक नई शाखा जीनोमैक्स प्राइवेट लिमिटेड की रिसेप्शनिस्ट का सुन्दर चेहरा वीजियोफोन के स्क्रीन पर उभर आया था।
``यस प्लीज .....इट इज जीनोमैक्स .... ए सिस्टर कन्सर्न ऑफ प्रेस्टेजियस जेनटेक कम्पनी ...´´
``कृपया नोट करें, मुझे एक जेनेटिकली मॉडी फाइड चाइल्ड चाहिए ..... एक चित्रकार जिसकी उंगलियाँ रंगों की तूलिका को बखूबी साध सकें , वह संवेदनशील और प्रकृति प्रेमी हो ........
``ओ0के0 सर, आप हमारे संस्थान के डॉ0 नील से आज सांयकाल 6 बजे सम्पर्क कर सकते हैं ....´´
खुद अपने ही अतीत को सहसा भूल बैठे, डॉ0 मनस्वी निगम एक मनचाही सन्तान के लिए व्यग्र हो उठे थे ..... अतीत का एक और दुहराव आसन्न था।
``हैलो, मैं डॉ0 आशुतोष निगम बोल रहा हूँ , क्या यह जेनटिक कम्पनी का मुख्यालय है ? ´´
``जी हाँ , मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ ?´´ उधर से एक सुरीली आवाज सुनायी पड़ी।
``मुझे कम्पनी के इंजीनियर मिस्टर आनन्द मुखर्जी से एपाइन्टमेंट चाहिए´´, डॉ0 निगम ने संयत स्वरों में जवाब दिया।
``होल्ड आन सर´´
डॉ0 निगम को उन चन्द लम्हों का इन्तजार ऐसा लगा जैसे सदियां गुजर गयी हैं। उनका धैर्य बस टूटने ही वाला था कि फिर वही सुरीली आवाज फोन पर गूंज उठी।
``आज ही शाम को चार बजे सर।´´
``ऑ के ´´ डॉ0 निगम ने उत्साह के साथ कहा और फोन का स्विच ऑफ कर दिया। कुछ पल वे किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे फिर विजियोफोन के एक नम्बर पर उंगली से हल्का सा स्पर्श किया। सामने स्क्रीन पर एक महिला की तस्वीर उभर आयी। यह महिला और कोई नहीं डॉ0 निगम की ही पत्नी श्रीमती मधुरिमा निगम थीं.
``मधुरिमा, मैंने जेनटिक इंजीनियर डॉ0 आनन्द से एपाइंटमेंट ले लिया है। आज ही शाम का चार बजे मैं तुम्हें भी साथ लेकर चलूँगा ´´
``नहीं, आप आप अकेले ही जाइये मैं आपके साथ नहीं जा पाऊँगी , मुझे अपनी पेटिंग का अधूरा काम आज ही पूरा करना है .. कल से ही प्रदर्शनी शुरू होने वाली है, जिसमें मैंने अपनी एक ताजातरीन पेंटिंग डिस्प्ले करने का वायदा कर रखा है ऑर फिर आपके एकल निर्णय में मैं भागीदार नही हूँ ,´´ आपको एक शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए, मुझे कलात्मक अभिरूचि की सन्तान, चाहे वह लड़का हो या लड़की मेरे लिए एक समान है´´ श्रीमती मधुरिमा की आवाज सहसा आक्रोश से भर उठी थी और विजियोफोन के स्क्रीन पर उनके तमतमाये हुए चेहरे की लालिमा साफ दिख रही थी।
``ओह! मधु डियर, तुम फिर शुरू हो गयी ... आज अन्तिम तौर पर हमने सुबह यह निर्णय लिया था कि हमारी सन्तान एक शल्य चिकित्सक ही होगी ´´
``मै फिर कहूंगी कि यह आपका अपना निर्णय है, मेरी सहमति न होने के बावजूद भी मैंने आपको अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार दे दिया था। मुझे क्या ....मुझे कोई बच्चा थोड़े ही जनना है, वह मेरे पेट में भी तो नहीं पलेगा... मेरी एक डिम्ब कोशिका ही तो चाहिए, वह मैं दे दूंगी , उसके बाद आप जाने और आपका वह जेनटिक इंजीनियर ,इस विषय पर मुझे अब और डिस्टर्ब मत कीजिए ... प्लीज ... ``इसके पहले कि डॉ निगम कोई प्रतिक्रिया करते उधर से श्रीमती मधुरिमा ने सम्पर्क विच्छेद कर दिया था।
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`` डॉ0 निगम! ये रहे विश्व के जाने माने शल्य चिकित्सों की वे स्टेम कोशिकायें, जिनसे मैंने उन जीन पैटर्न को अलग कर लिया है, जिनमें एक शल्य चिकित्सक की विशेषतायें जैसे उंगलियों की बनावट आदि, छुपी हुई है। एक शल्य चिकित्सक के दोनों हाथों की उंगलियों की बनावट, कारीगरी और उसकी त्रिविमीय दृष्टि के कुशल समंजन से ही जटिल से जटिल शल्य चिकित्सा भी आसान हो जाती है ... इन सारे गुणों के वाहक जीन आपके पुत्र में भ्रूणावस्था के दौरान ही प्रत्यारोपित कर दिये जायेगें, जिससे आपका पुत्र एक होनहार शल्य चिकित्सक बन सकेगा।´´ डॉ0 निगम की मुखमुद्रा बता रही थी कि वे डॉ0 मुखर्जी की तकरीर से काफी प्रभावित थे।
``मगर एक मुश्किल यह है डॉ0 ममुखर्जी कि मेरी पत्नी शल्य चिकित्सक के बजाय कलात्मक अभिरूचि ऑर वह भी एक पेन्टर को सन्तान के रूप में चुनना चाहती हैं अब भला आप ही बताइये कि इस देश में एक चित्रकार का भला क्या भविष्य है? सभी पाब्लो पिकासो.. राजा रवि वर्मा या नन्दलाल बोस तो नहीं हो सकते। मेरी पत्नी को ही देखिये, आधी से ज्यादा उम्र गुजर गयी है, अब जाकर एक चित्रकार के रूप में उनकी कुछ पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पायी है .. महज मान-सम्मान ही तो सब कुछ नहीं है, जीवन की तमाम भौतिक आवश्यकतायें भी तो हैं ... डॉ0 निगम भावातिरेक में बहक उठे थे कि तभी डॉ0 मुखर्जी ने उन्हे सायास रोका।
``डॉ0 निगम, यह आपका पारिवारिक मामला है, मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे तो बस आपकी पत्नी की एक डिम्ब कोशिका चाहिए । किराये की कोख यहाँ उपलब्ध है। मेरा आशय धाय माँ के रूप में वालिन्टयर से है, जिसकी व्यवस्था भी हमारी कम्पनी करती है ....हाँ , इसका पेमेन्ट आपको अलग से करना होगा और पूरे नौ महीने इसके गुजारे भत्ते की राशि भी आपको जमा करनी होगी। आखिर आपका सर्जन पुत्र उसकी कोख में ही तो पलेगा ।´´
``जी, जी, मैं सारा व्यय भार उठाने को तैयार हूँ , बस मुझे एक होनहार शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए ।´´ डॉ0 निगम की आवाज में अनुनय का आग्रह था। ``तो फिर ठीक है, काउन्टर पर निर्धारित धनराशि जमा कर दीजिये और भ्रूण आरोपण की तिथि भी वहीं से ले लीजिए ... आपके शुक्राणु और श्रीमती निगम की अण्ड कोशिका प्राप्त करने की तारीख भी आपको वहीं मिल जायेगी।´´ डॉ0 मुखर्जी ने अपनी रिस्ट वाच की ओर देखा जिसका अर्थ था कि डॉ0 निगम से उनके मुलाकात का समय पूरा हो चुका था।
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टेस्ट ट्यूब विधि से बाह्य निषेचन की प्रक्रिया यानि इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अब एक आम चिकित्सकीय घटना बन चुकी थी। लिहाजा डॉ0 निगम के वाई शुक्राणु और उनकी पत्नी मधुरिमा द्वारा दिये गये डिम्ब कोष के संयोग से जेनटेक कम्पनी की प्रयोगशाला में निषेचन की प्रक्रिया सहजता से पूरी कर ली गयी थी और आरिम्भक भ्रूणीय विकास के समय ही अतिसूक्ष्म इंजेक्शन प्रणाली से दुनिया के कई मशहूर शल्य चिकित्सकों के चुनिन्दा जीन भी भ्रूण में प्रविष्टि करा दिये गये थे। यह जैवीय रचना अब चिकित्सा विज्ञान के शब्दों में जेनेटिकली माडीफाइड आर्गैनिज्म का दर्जा पा चुकी थी। इसे एक धाय माँ के कोख की जरूरत थी ऑर वह भी यथा समय मुहैया करा दी गयी थी। भावी शिशु के धाय माँ की पहचान उजागर नहीं की गयी थी, किन्तु उसकी देखभाल और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी जेनटेक कम्पनी की थी। जेनटेक जैसी कइ दूसरी कम्पनियों की बदौलत किराये की कोख का व्यवसाय फूल-फल रहा था। गरीबी और भूख से बेहाल बेरोजगारों की विशाल फौज को विज्ञान की दुनिया का नया तोहफा मानो रास आ गया था। ऐसे मामलों में एक अनुबन्ध के जरिये दोनों पक्षों यानि कोखदाता और सन्तान के इच्छुक दम्पति एक दूसरे की पहचान से अनभिज्ञ रहते थे ताकि भविष्य में किसी तरह के सामाजिक, नैतिक या फिर कानूनी जटिलताओं से बचा सके। समय तेजी से बीत रहा था।
किराये की कोख में भ्रूण आरोपण के ठीक 276वें दिन डॉ0 निगम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। प्रसव प्रक्रिया जेनटेक कम्पनी के एक गोपनीय कक्ष में सम्पन्न हुई थी। मा¡-बाप के जेनेटिक मेकअप से बच्चे के डी एन ऐ फिंगर प्रिंट के मिलान से पैतृकता की पुष्टि के बाद जेनटिक कम्पनी ने नवजात शिशु को निगम दम्पत्ति को सौंप दिया था। डॉ0 निगम के यहाँ समारोह सा माहौल था। लोगों की बधाइयों का तांता लगा हुआ था। डॉ0 निगम की भी खुशी का कोई पारावार नहीं .था ... उन्होंने नवजात का प्यारा सा नाम रखा था- मनस्वी। इनका दृढ़ विश्वास था कि आगे उनका यही पुत्र एक प्रख्यात शल्य चिकित्सक बनेगा और परिवार की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगायेगा।
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``ललित कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए एक विशिष्ट पुरस्कार डॉ0 मनस्वी निगम को दिया जाता है। सभागार में समवेत करतल ध्वनि गूँज उठी जिसमें उद्घोषक के आगे के शब्द अनसुने रह गये। अगले ही पल डॉ0 मनस्वी निगम मंच पर विराजमान थे। उत्साहित दर्शकों की अहिर्नश, अनवरत तालियाँ मानों निर्णायक मंडल के निर्णय पर अपनी मुहर लगा रही थीं। पेशे से एक चिकित्सक होने के बावजूद डॉ0 निगम ने ललित कला के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी ... अभी उनकी उम्र ही कितनी थी``जीवेत शरद: शतम´´ की आयु स्केल पर उनके जीवन का यह २५वां बसन्त ही तो था। पिछले ही वर्ष उन्हें शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में अभिनव शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। ऑर आज सहस्त्राब्दी चिकित्सा महाविद्यालय के ``एलुमिनी मीट´´ यानि पूर्व छात्र मिलन समारोह के अवसर पर ललित कला के एक पारखी के रुप में उन्हें सम्मानित किया जा रहा था। ..डॉ0 निगम ने उद्बोधन के औपचारिक आग्रह को सहज ही स्वीकार कर लिया था। प्रेक्षागृह की निस्तब्धता यह इंगित कर रही थी कि श्रोतागण उन्हें पूरी तन्मयता से सुनने को उद्यत थे। डॉ0 निगम भाव विह्वल हो उठे ...... उनके शब्द भावपूर्ण किन्तु संयत संबोधन में उनके मुहँ से नि:सृत एक-एक शब्द श्रोतागण ध्यान से सुन रहे थे .....
." आप शायद विश्वास न करें किन्तु मेरी अभी तक की जिन्दगी विडम्बनाओं से भरी रही है ... मेरे पिताजी का निर्णय था कि मैं चिकित्सा के क्षेत्र में ही अपने परिवार का नाम रोशन करूं , क्योंकि चिकित्सा ही मेरा पारम्परिक ऑर पारिवारिक व्यवसाय रहा है। मेरे स्वर्गवासी माता-पिता ने चिकित्सा को ही आजीविका के रूप में अपनाते हुए समाज की आजीवन सेवा की ... उनके वंश परम्परा में चिकित्सा सेवा का क्रम चलता रहे इसलिए मेरे जन्म से पहले ही उनहोंने मुझे चिकित्सक बनाने का संकल्प ले लिया था ...वे ``चिकित्सात पुण्यतमों न किंचित´´ अर्थ्हत चिकित्सा के समान दूसरा कोई पुण्य नहीं है, के पक्षधर थे ... ``डॉ0 निगम पल भर के लिए रूके, मेज से पानी का गिलास उठाया , शुष्क हो रहे गले को आर्द्र किया और फिर बोल पड़े,
``मेरे माता-पिता मुझे शल्य चिकित्सक के रूप में देख्ना चाहते थे, मेरी घोर अनिच्छा के बावजूद कला विषयों के बजाय मुझे प्राणीशास्त्र में दाखिला दिलाया गया। उफ्फ। मेढ़कों के चीर-फाड़ से शुरू हुई शल्य चिकित्सा का पाठ मेरे लिए बहुत पीड़ादायी था। कैंची और चिमटी के बजाय तूलिका-ब्रशों का संस्पर्श मेरी उंगलियों में नयी स्पूर्ति भर देता लेकिन मेरे पिता जी को तो मुझे शल्य चिकित्सक बनाने की धुन सवार थी। मुझे अच्छी कोचिंग दिलवाई गयी ..... मेडिकल इन्ट्रेन्स टेस्ट में मैं चुन भी लिया गया ऑर फिर इस मेडिकल कॉलेज में दाखिला हुआ। सेमेस्टरों और परीक्षाओं का दौर ...एम0बी0बी0एस0 ...एम0एस0 ऑर फिर इसी विश्वविद्यालय से शल्य चिकित्सा के ही नये पहलुओं पर मैंने पी-एच0डी0 भी कर ली ... लेकिन इस व्यस्त जीवनचर्या में भी मेरा अन्तर्मन रंगों के नित नये संयोजनों को ही संजोता रहता। मेरे इस अंकिंचन योगदान को सम्मान योग समझा गया ... मैं आभारी हूँ धन्यवाद।´´´ अन्तिम वाक्य तक आते-आते डॉ0 निगम का गला भर आया था। वे अतिशय भावुक हो उठे थे। एलुमिनी मीट के मनोरंजक सांस्कृतिक कार्यक्रमों को छोड़कर कुछ अनमनस्क से वे घर लौट आये थे। घर में भी डॉ0 निगम का मन अशान्त सा बना रहा । चिकित्सा कर्म उनका पेशा था और चित्रकारिता उनका शौक। एक उनकी जीविका थी तो दूसरा मानो उनका जीवन। जीविका और जीवन के इस अंतर्द्वंद में बुरे फंसे थे डॉ0 निगम। अभी उनके कैरियर की यह शुरूआत भर थी ऑर चिकित्सा जैसी सम्भावनाओं से भरे पेशे को अलविदा करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे। उनके बुजुर्ग परिजनों और सहयोगियों ने उन्हें समझाया था कि महज कला के सहारे उनकी जीवन नैया पार नहीं लगने वाली हैं इसी उधेड़बुन और विचार मंथन में डॉ0 निगम की पलकें बोिझल हो उठी ....उन्हें निद्रा देवी ने अपने आगोश में ले लिया था।
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समय चक्र तेजी से घूम रहा था। डॉ0 मनस्वी निगम पेशे से तो चिकित्सक थे किन्तु उनकी ख्याति एक शल्य चिकित्सक के बजाय एक चित्रकार के रूप में उभर रही थी। शल्य चिकित्सा के अपने पुश्तैनी धन्धे का वे बस निर्वाह ही कर पा रहे थे। इसी दौरान वे अपनी एक चिकित्सक सहपाठी डॉ0 मानुषी से परिणय सूत्र में बंध गये थे। वेसे तो धन-वैभव और सम्पत्ति के विस्तार में डॉ0 निगम दूसरे चिकित्सकों की तुलना में काफी पिछड़ गये थे, किन्तु वे सन्तुष्ट थे। शल्य चिकित्सा से तो जैसे उन्होंने मुहँ ही मोड़ लिया था। उनका मन इस पेशे से उचट गया था। जिस कुशलता से उनकी उंगलिया रंगों की तूलिका संभालती थी, शल्य क्रिया के समय मानों वे बेदम हो जाती थीं। वैसे शल्य क्रिया में आज भी उनकी कोई सानी नहीं थी ऑर जटिल से भी जटिल शल्य क्रिया को वे जिस सहजता और कुशलता से अंजाम दे देते थे उनके प्रतिद्वन्द्वी तक भी उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे। किन्तु इस पुश्तैनी काम से उनका मन विरत सा हो गया था। कभी-कभी जब जीवन की इस विडम्बना भरी परिणति से उनका मन अवसाद से भर उठता तब उनकी सहचरी श्रीमती मानुषी उनको उत्साहित करतीं, उनका मनोबल बढ़ाती। फिर भी कुछ घटनायें ऐसी घटती कि डॉ0 मनस्वी को गहरा आघात लगता। अभी उसी दिन तो भारत के राष्ट्रपति को जब उन्होंने एक तैलचित्र भेंट करना चाहा था तो राष्ट्रपति ने उन्हें यह नसीहत दे डाली थी कि अच्छा होता वे एक चित्रकार के रूप में ही शिक्षित हुए होते, नाहक ही उन्हें डाक्टर बनाने पर एक गरीब देश का काफी पैसा बरबाद हुआ। इस घटना ने उन्हें मार्मिक चोट पहु¡चायी थी। किन्तु मानुषी की आत्मीयता और सतत् प्रोत्साहन ने जल्दी ही इस घाव को भर दिया था। उन्होंने अब चित्रकारिता को ही जीवन का ध्येय बना लिया था और इसी ध्येय की प्राप्ति में वे प्राणप्रण से जुट गये थे। शीघ्र ही राष्ट्रीय ऑर अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक चित्रकार के रूप में उनकी पहचान बनने लगी थी और अब जब यूनेस्को ने भी ललित कला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया तो भारत का भी नाम गौरव से ऊंचा उठ गया था। जीवन के प्रति अब तक के उनके सारे गिले-शिकवे दूर हो गये थे। आखिर वे अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शिख्सयत जो बन गये थे।
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वह एक ऐसी ही सुरमई शाम थी जैसी कि डॉ0 मनस्वी ने अपनी एक पेिन्टग में उकेरी थी। डूबते हुए सूरज की शनै: शनै: धु¡धलाती लालिमा ऑर वृक्षों की अन्तहीन सी होती परछाईयाँ मानों कोई गुप्त सन्देश दे रही थी। अचानक ही डॉ0 निगम को अहसास हुआ कि यह सन्देश तो खुद उन्ही के लिए ही था। उनके जीवन का चालीसवां बसन्त पूरा होने को आया था ... प्रकृति मानों उन्हें एक सूक्षम संकेत दे रही थी। वंश-वृिद्ध का संकेत। जिसे समझने में उन्होंने देर नहीं की। वे तुरत-फरत विजियोफोन पर एक नम्बर डायल करने लगे। अगले ही पल मशहूर जेनटिक कम्पनी की एक नई शाखा जीनोमैक्स प्राइवेट लिमिटेड की रिसेप्शनिस्ट का सुन्दर चेहरा वीजियोफोन के स्क्रीन पर उभर आया था।
``यस प्लीज .....इट इज जीनोमैक्स .... ए सिस्टर कन्सर्न ऑफ प्रेस्टेजियस जेनटेक कम्पनी ...´´
``कृपया नोट करें, मुझे एक जेनेटिकली मॉडी फाइड चाइल्ड चाहिए ..... एक चित्रकार जिसकी उंगलियाँ रंगों की तूलिका को बखूबी साध सकें , वह संवेदनशील और प्रकृति प्रेमी हो ........
``ओ0के0 सर, आप हमारे संस्थान के डॉ0 नील से आज सांयकाल 6 बजे सम्पर्क कर सकते हैं ....´´
खुद अपने ही अतीत को सहसा भूल बैठे, डॉ0 मनस्वी निगम एक मनचाही सन्तान के लिए व्यग्र हो उठे थे ..... अतीत का एक और दुहराव आसन्न था।
Saturday, February 16, 2008
आईये जाने क्या है विज्ञान कथा -समापन किश्त !
आईये जाने क्या है विज्ञान कथा पर मेरी यह अन्तिम विनम्र प्रस्तुति है .अभी फिलहाल इतना ही ..हो सकता है मेरा यह टिटिट्भ प्रयास कुछ लोगों मे इस उपेक्षित हिन्दी साहित्य की विधा के प्रति वात्सल्य जगा सके ........
कुछ समीक्षकों का मानना है कि फिक्शन जो लातिनी मूल का शब्द है और जिसका अर्थ है ``आविष्कार करना´´ विचारों (आईडिया) से सम्बन्धित है जबकि ग्रीक मूल के शब्द `फैन्टेसी´ जिसका अर्थ है कल्पना करना, छाया चित्रण यानी `इमेजेज´ का भाव लिये हुए है। आशय यह कि साइंस फिक्शन´ विचार प्रधान कथायें हैं तो वहीं `साइंस फंतासी´ दृश्य प्रधान प्रस्तुति है। इस अर्थ में भी साइंस फिक्शन-फंतासी के विभेद को समझना आसान है। गौरतलब है मिथक भी दृश्य प्रधानता लिये होते हैं। अर्थात मिथकों और विज्ञान फंतासी में काफी हद तक समानता सी है।
विज्ञान कथायें बिना इस `लेबेल´ के भी मुख्यधारा के साहित्य में यदा-कदा दिखती रही हैं- पहले के अनेक कथाकार `विज्ञान कथा´ के `नामकरण´ से ही अपरिचित थे- यह तो कालान्तर में इस विधा की विशिष्ट पहचान को बनाये रखने के लिए `विधागत विज्ञान कथा´ (जानरे एसण्एफण्) का एक अलग वर्गीकरण ही बना दिया गया है। पर मेरी शैली की `फ्रेन्केन्स्टीन´ (1818) आल्डुअस हक्सले की `द ब्रेव न्यू वल्र्ड´ (1938) जार्ज आर्वेल का `एनिमल फार्म´ और '1984'(1960) जैसी अमर कृतियाँ मुख्य धारा के ही साहित्य के रुप में चर्चित हुईं। आज भी विज्ञान कथाओं को मुख्यधारा के साहित्य के रुप में प्रचारित प्रसारित करने की हिमायत हो रही है। हमारे यहाँ राहुल सांकृत्यायन की `बाईसवीं सदी´ (1924), आचार्य चतुरसेन शास्त्री का `खग्रास´ (1960), डॉ0 सम्पूर्णानन्द का `धरती से सप्तिर्षमण्डल´ (1970) मुख्यधारा की बेहतरीन विज्ञान कथायें रही हैं।डा0 राकेश गुप्त (ग्रन्थायन, अलीगढ़) ने धर्मयुग में प्रकाशित इस नाचीज की एक आरिम्भक वैज्ञानिक कहानी-'एक ऑर क्रौंचवध '(1989) को नवें दशक की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में स्थान दिया है .
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कुछ समीक्षकों का मानना है कि फिक्शन जो लातिनी मूल का शब्द है और जिसका अर्थ है ``आविष्कार करना´´ विचारों (आईडिया) से सम्बन्धित है जबकि ग्रीक मूल के शब्द `फैन्टेसी´ जिसका अर्थ है कल्पना करना, छाया चित्रण यानी `इमेजेज´ का भाव लिये हुए है। आशय यह कि साइंस फिक्शन´ विचार प्रधान कथायें हैं तो वहीं `साइंस फंतासी´ दृश्य प्रधान प्रस्तुति है। इस अर्थ में भी साइंस फिक्शन-फंतासी के विभेद को समझना आसान है। गौरतलब है मिथक भी दृश्य प्रधानता लिये होते हैं। अर्थात मिथकों और विज्ञान फंतासी में काफी हद तक समानता सी है।
विज्ञान कथायें बिना इस `लेबेल´ के भी मुख्यधारा के साहित्य में यदा-कदा दिखती रही हैं- पहले के अनेक कथाकार `विज्ञान कथा´ के `नामकरण´ से ही अपरिचित थे- यह तो कालान्तर में इस विधा की विशिष्ट पहचान को बनाये रखने के लिए `विधागत विज्ञान कथा´ (जानरे एसण्एफण्) का एक अलग वर्गीकरण ही बना दिया गया है। पर मेरी शैली की `फ्रेन्केन्स्टीन´ (1818) आल्डुअस हक्सले की `द ब्रेव न्यू वल्र्ड´ (1938) जार्ज आर्वेल का `एनिमल फार्म´ और '1984'(1960) जैसी अमर कृतियाँ मुख्य धारा के ही साहित्य के रुप में चर्चित हुईं। आज भी विज्ञान कथाओं को मुख्यधारा के साहित्य के रुप में प्रचारित प्रसारित करने की हिमायत हो रही है। हमारे यहाँ राहुल सांकृत्यायन की `बाईसवीं सदी´ (1924), आचार्य चतुरसेन शास्त्री का `खग्रास´ (1960), डॉ0 सम्पूर्णानन्द का `धरती से सप्तिर्षमण्डल´ (1970) मुख्यधारा की बेहतरीन विज्ञान कथायें रही हैं।डा0 राकेश गुप्त (ग्रन्थायन, अलीगढ़) ने धर्मयुग में प्रकाशित इस नाचीज की एक आरिम्भक वैज्ञानिक कहानी-'एक ऑर क्रौंचवध '(1989) को नवें दशक की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में स्थान दिया है .
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Friday, February 15, 2008
विज्ञान कथा ऑर मिथक मे फर्क !
क्या सभी कथा-कहानियों जिनमें मौजूदा समाज से अलग-थलग परिवेश जुगतों, पात्रों का चित्रण होता है को `विज्ञान कथा´ का दर्जा देना उचित है? यदि ऐसा है तो हमारे कितने ही मिथकीय कथानक-वांग्मय जिनमे चित्र-विचित्र दृश्य-परिदृश्यों, पात्रों, स्वर्ग-नरक के अजब गजब कारनामों की भरमार सी है, सभी विज्ञान कथा की श्रेणी में आ जायेंगी। मगर यहाँ एक बंदिश है- क्या कथित मिथकीय घटनाओं की तकनीक में किसी भी तरह की फेरबदल से उन्हें मौजूदा प्रौद्योगिकी के स्तर से जोड़ा जा सकता है? यदि किन्हीं मामलों में इसका उत्तर हाँ है तो निसन्देह वह विशिष्ट दृश्य-दृष्टान्त भले ही `साइंस िफ़क्शन´ के फ्रेम में फिट न हो सके वह विज्ञान फंतासी की देहरी को तो छू ही लेगा। लेकिन अधिकांश मिथकों का मौजूदा/समकालीन प्रौद्योगिकी से गर्भनाल का भी सम्बन्ध नहीं पाया जाता। अत: उन्हें विज्ञान कथा की कटेगरी में रखने में हिचक सी रहती है। हा¡ उनकी शैली, कथा प्रस्तुति कई बार आधुनिक विज्ञान कथाओं की सी प्रतीति कराती है। `द लार्ड आफ द रिंग्स´ एक ऐसी ही मिथकीय विज्ञान फंतासी है।
हाँ , यह अवश्य है कि विज्ञान कथाओं के कथावस्तु (थीम) के लिए मिथकों में माथा पच्ची की जा सकती है। उनमें कई ऐसी सूझें, युक्तियाँ -जुगते हो सकती हैं जिनसे विज्ञान कथाओं की थीम-आइडिया मिल सकती है। अन्तर्वंशीय (इन्टरजेनेरिक) शल्य प्रत्यारोपण (गणेश), आयोनिज जनन-क्लोनिंग (कौरवों की उत्पत्ति,रक्तबीज-महिषासुर) माया (वर्चुअल ) युद्ध (मेघनाथ का इस युद्ध विद्या में पारंगत होना) आदि अद्भुत संकल्पनायें हैं जिनकी आज की विज्ञान कथाओं में भी व्याप्ति है। मेरी एक कथा- `अलविदा प्रोफेसर´ एक दैत्य के भय के चलते प्रद्युम्न को शीघ्र ही युवा बना देने के अनुष्ठान की कथा से प्रेरित है। उर्सुला ली गुईन नामकी अमेरिकी विज्ञान कथाकार मिथकों को `समकालीन´ विज्ञान कथा का दर्जा देती हैं क्योंकि उनमें भविष्य की दुनिया -तकनीक की सम्भावनाओं की झलक होती है। कार्ल सागान जिन्हें कभी अमेरिका का ``शो मैन आफ़´´ साइंस कहा जाता था, भारतीय मिथकों के मुरीद थे।
Monday, February 11, 2008
सामाजिक कहानी ऑर विज्ञान कथा में फ़र्क !
एक आम सामाजिक कहानी और विज्ञान कथा में फर्क क्या है? फ़र्क स्पष्ट है- सामाजिक कहानी जहाँ हमारे समकालीन व्यष्टि- समष्टि का दु:खदर्द बयान करती हैं, विज्ञान कथायें अमूमन भविष्य की मानवीय समस्याओं को फोकस करती हैं- उनमें काल का विपर्यय बोध भी सुस्पष्ट दीखता हैं ,अमूमन उनमें हमारा जाना पहचाना समाज, जानी पहचानी तकनीके कुछ भी नहीं होतीं .हाँ उनका वर्तमान/समकालीन धरातल से एक `गर्भनाल का सम्बन्ध' अवश्य होना चाहिए। अर्थात आज की कठिनाइयों, विडम्बनाओं और यांत्रिक तामझाम-विज्ञान और तकनीकी से वे जुड़ी भी हों अन्यथा उनके कथ्य-कथानक का अन्चीन्हापन उन्हें मिथकों के स्वर्ग-नरक के समकक्ष तक ले जा पहुँचायेगा ।
यदि कथित विज्ञान कथाओं में वर्णित परिकल्पित तकनीक के स्तर में परिवर्तन से उन्हें समकालीन (कथा प्रणयन के समय के समाज) धरातल पर लाया जा सके तो समझिए वह सचमुच विज्ञान कथा है और यदि ऐसा सायास भी सम्भव नहीं हो पा रहा है तो वह विज्ञान कथा तो नही मिथक, जादू , प्रलाप या महज गप्पबाजी कुछ भी हो सकता है। कुछ विज्ञान फंतासियाँ इसी समूह में आती हैं। उनमें विज्ञान का कुछ छौंक बघार हुआ रहता है इसलिए वे भी विज्ञान कथा के लेबेल में आ जाती हैं।
`टाइम मशीन´ एक ऐसी ही जुगत है। जिसका वजूद में आना असम्भव सा है। मगर ए0जी0 वेल्स की इस सूझ से अतीत और भविष्य का सफर सहसा ही विज्ञान सम्मत हो गया- ऑर एक अनदेखी दुनिया के अनुमानित वर्णन की कथात्मक युक्ति कथाकारों के हाथ लग गयी। पहले लोग या तो स्वप्न को अतीत या भविष्य के अवगाहन का माध्यम बनाते थे या फिर ध्यान योग की ऋतम्भरा प्रज्ञा की शरण लेते थे। क्या `टाइम मशीन´ में बैठकर महाभारत काल में पहुंचकर श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद-गीता पाठ का श्रवण लाभ लिया जा सकता है? विज्ञान फंतासी में कदाचित यह सम्भव है।
यदि कथित विज्ञान कथाओं में वर्णित परिकल्पित तकनीक के स्तर में परिवर्तन से उन्हें समकालीन (कथा प्रणयन के समय के समाज) धरातल पर लाया जा सके तो समझिए वह सचमुच विज्ञान कथा है और यदि ऐसा सायास भी सम्भव नहीं हो पा रहा है तो वह विज्ञान कथा तो नही मिथक, जादू , प्रलाप या महज गप्पबाजी कुछ भी हो सकता है। कुछ विज्ञान फंतासियाँ इसी समूह में आती हैं। उनमें विज्ञान का कुछ छौंक बघार हुआ रहता है इसलिए वे भी विज्ञान कथा के लेबेल में आ जाती हैं।
`टाइम मशीन´ एक ऐसी ही जुगत है। जिसका वजूद में आना असम्भव सा है। मगर ए0जी0 वेल्स की इस सूझ से अतीत और भविष्य का सफर सहसा ही विज्ञान सम्मत हो गया- ऑर एक अनदेखी दुनिया के अनुमानित वर्णन की कथात्मक युक्ति कथाकारों के हाथ लग गयी। पहले लोग या तो स्वप्न को अतीत या भविष्य के अवगाहन का माध्यम बनाते थे या फिर ध्यान योग की ऋतम्भरा प्रज्ञा की शरण लेते थे। क्या `टाइम मशीन´ में बैठकर महाभारत काल में पहुंचकर श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद-गीता पाठ का श्रवण लाभ लिया जा सकता है? विज्ञान फंतासी में कदाचित यह सम्भव है।
Wednesday, February 6, 2008
आईये जानें क्या है विज्ञान कथा !
विज्ञान कथा दरअसल साहित्य की ही एक विधा है- किन्तु हिन्दी में सर्वथा उपेक्षित और अचर्चित।दिन दूनी रात चौगुनी गति से हो रहे प्रौद्योगिकी बदलावों का मनुष्य के एकाकी अथवा सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है, इसका पूर्वानुमान/पूर्वाकलन ही विज्ञान कथा का विवेच्य है। सुप्रसिद्ध अमेरिकी विज्ञान कथाकार आइजक आजिमोव के शब्दों में विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है जो मानव समाज पर प्रौद्योगिकी जनित बदलावों की एक पूर्वानुमानित झलकी- तस्वीर प्रस्तुत करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह मानव की निजी और सामाजिक जिन्दगी पर प्रौद्योगिकी की बढ़ती दखलन्दाजी से उपजी मानवीय प्रतिक्रिया/अभिव्यक्ति की ही एक साहित्यिक प्रस्तुति है।
विज्ञान कथाओं में `काल विपर्यय (एनाक्रोनिज्म) मुख्य तत्व है- अर्थात किसी समकालीन पृष्ठभूमि- कैनवस पर कथानक के अंकुरण के बावजूद भी बहुत कुछ उस परिवेश से बेमोल/अनफिट सा घटित होता रहता है। उदाहरण के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के हाथ में धनुष के बजाय ए0के0-47 दिखाया जाना या फिर गांधी जी का मोबाइल फोन पर बात करते हुए चित्रित होता, विज्ञान कथां की प्रकृति के सर्वथा अनुरुप है. विज्ञान कथाओं के सन्दर्भ में काल विपर्यय की यही अवधारणा है ऑर भविष्य का पूर्वानुमान तत्वत: विज्ञान कथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य है। कैसी होगी आने वाली दुनिया, क्या जनसंख्या विस्फोट के चलते सागर की तलहटियों में बसेंगी मानव सभ्यताएं या फिर चाँद ऑर मंगल की ओर शुरू होगा महाभिनिष्क्रमण! क्या कम्प्यूटर क्रान्ति के चलते मनुष्य की लेखन कला कालातीत हो उठेगी और वह नये अर्थों में `मसि कागज छुओं नहीं 'को चरितार्थ कर केवल कम्प्यूटर की बोर्ड पर उंगलियों को थिरका सकेगा। लोग शायद भूल भी जायेंगे कि की लिखने के लिए कभी कागज और कलम का भी इस्तेमाल होता था। कागज कलम के पुजारी तब ढूढे भी नहीं मिलेंगे ।ऐसी दुनियाँ की यदि आज कथात्मक झलक दिखा दे तो समिझये वह विज्ञान कथाकार है।
विज्ञान कथा के दो मुख्य विभेद हैं- एक तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के ज्ञात और मान्य तथ्यों पर आधारित होती है जिसे `सांइस फिंक्शन´ के नाम से सम्बोधित करते हैं ऑर जो विज्ञान के नाम पर केवल कल्पना के बेलगाम घोड़ों को `सरपट दौड़ाते रहने को तवज्जो देती हैं- विज्ञान फंतासी कहलाती हैं। हिन्दी साहित्य में `विज्ञान कथा´ इन दोनो ही प्रवृत्तियों का बोध कराने वाला सम्बोधन है। विज्ञान कथा को हम विज्ञान गल्प का सम्बोधन भी देते हैं क्योंकि बंगला साहित्य में `शार्ट स्टोरी´ को `गल्प´ कहा जाता है और यह शब्द हिन्दी में भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। `विज्ञान कथा´ को `वैज्ञानिक कहानी´ कहने में भी कोई गुरेज नहीं है। तथापि यदि कोई राम भक्त `टाइम मशीन´ में बैठकर राम रावण युद्ध काल में पहुँच कर अपने आराध्य को ए0के0 - 47 पकडा बैठे तो इस अनोखे दृष्ठांत को विज्ञान फंतासी कहना ज्यादा उचित होगा। किंतु चाँद की सरजमी पर खनिज सम्पदाओं के उत्खनन की तकनीक का विवरण देती कथा `साइंस फिक्शन´ कही जायेगी।
पुनश्च ............
विज्ञान कथाओं में `काल विपर्यय (एनाक्रोनिज्म) मुख्य तत्व है- अर्थात किसी समकालीन पृष्ठभूमि- कैनवस पर कथानक के अंकुरण के बावजूद भी बहुत कुछ उस परिवेश से बेमोल/अनफिट सा घटित होता रहता है। उदाहरण के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के हाथ में धनुष के बजाय ए0के0-47 दिखाया जाना या फिर गांधी जी का मोबाइल फोन पर बात करते हुए चित्रित होता, विज्ञान कथां की प्रकृति के सर्वथा अनुरुप है. विज्ञान कथाओं के सन्दर्भ में काल विपर्यय की यही अवधारणा है ऑर भविष्य का पूर्वानुमान तत्वत: विज्ञान कथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य है। कैसी होगी आने वाली दुनिया, क्या जनसंख्या विस्फोट के चलते सागर की तलहटियों में बसेंगी मानव सभ्यताएं या फिर चाँद ऑर मंगल की ओर शुरू होगा महाभिनिष्क्रमण! क्या कम्प्यूटर क्रान्ति के चलते मनुष्य की लेखन कला कालातीत हो उठेगी और वह नये अर्थों में `मसि कागज छुओं नहीं 'को चरितार्थ कर केवल कम्प्यूटर की बोर्ड पर उंगलियों को थिरका सकेगा। लोग शायद भूल भी जायेंगे कि की लिखने के लिए कभी कागज और कलम का भी इस्तेमाल होता था। कागज कलम के पुजारी तब ढूढे भी नहीं मिलेंगे ।ऐसी दुनियाँ की यदि आज कथात्मक झलक दिखा दे तो समिझये वह विज्ञान कथाकार है।
विज्ञान कथा के दो मुख्य विभेद हैं- एक तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के ज्ञात और मान्य तथ्यों पर आधारित होती है जिसे `सांइस फिंक्शन´ के नाम से सम्बोधित करते हैं ऑर जो विज्ञान के नाम पर केवल कल्पना के बेलगाम घोड़ों को `सरपट दौड़ाते रहने को तवज्जो देती हैं- विज्ञान फंतासी कहलाती हैं। हिन्दी साहित्य में `विज्ञान कथा´ इन दोनो ही प्रवृत्तियों का बोध कराने वाला सम्बोधन है। विज्ञान कथा को हम विज्ञान गल्प का सम्बोधन भी देते हैं क्योंकि बंगला साहित्य में `शार्ट स्टोरी´ को `गल्प´ कहा जाता है और यह शब्द हिन्दी में भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। `विज्ञान कथा´ को `वैज्ञानिक कहानी´ कहने में भी कोई गुरेज नहीं है। तथापि यदि कोई राम भक्त `टाइम मशीन´ में बैठकर राम रावण युद्ध काल में पहुँच कर अपने आराध्य को ए0के0 - 47 पकडा बैठे तो इस अनोखे दृष्ठांत को विज्ञान फंतासी कहना ज्यादा उचित होगा। किंतु चाँद की सरजमी पर खनिज सम्पदाओं के उत्खनन की तकनीक का विवरण देती कथा `साइंस फिक्शन´ कही जायेगी।
पुनश्च ............
Friday, February 1, 2008
क्या ग्रेग बियर को आपमें किसी ने पढा है ?हाजिर है , Quantico!
ग्रेग बियर जैसे नामी गिरामी अमेरिकी विज्ञान कथाकार के इस विज्ञान कथात्मक थ्रिलर की इन दिनों बड़ी चर्चा है- इसे अमेरिकी विज्ञान कथा प्रेमियों द्वारा दिये जाने वाले कई पुरस्कारों के लिए भी नामित किया जा चुका है। वे जो ग्रेग बियर से परिचित नहीं हैं जान लें कि अमेरिका में इस सर्व समादृत विज्ञान कथाकार की सेवायें अमेरीकी गुप्तचर संस्था एफ0बी0आई0 द्वारा आतंकवाद के खात्में के लिए ली जा रही हैं । ग्रेग बियर ने एफ0बी0आई0 के मुख्यालय जिसका नाम `quantico ' है को अपनी नई औपन्यासिक कृति के नाम के रूप में चुना है। जो विज्ञान कथा के साथ ही एक सनसनीखेज, रोमांचक उपन्यास का दुहरा आनन्द पाठकों को मुहैया कराती है।
आइये रचनाकार की कृति चर्चा-कृतित्व से पहले उसके व्यक्तित्व का एक जायजा लेते चलें। ग्रेग बियर (पूरा नाम-डेल ग्रेग बियर) का जन्म सैन डियागो, कैलिफोर्नियाँ में 20 अगस्त 1951, को हुआ था। उनके पिता चूँकि नैवी में थे अत: इन्होंने बचपन में जापान, फिलीपींस, अलास्का और अमेरिका के बन्दरगाहों के सैर सपाटे का भरपूर आनन्द उठाया। इन्हीं समुद्री यात्राओं और प्रकृति सामीप्य ने इनको लेखन की ओर प्रवृत्त किया . 15 वर्ष की आयु में इन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी जो `फेमस साइंस फिक्शन ´ में छपी। 1979 में इनका पहला उपन्यास `हेजिरा´ प्रकाशित हुआ। इनकी कहानियों - `हार्डफार´, `ब्लड म्यूजिक´ और `टेन्जेण्टस´ के लिये इन्हें प्रतिष्ठित नेबुला सम्मान से नवाजा गया। इनके उपन्यास, `मूविंग मार्स- (1993) के लिए भी इन्हें `नेबुला´ से सम्मानित किया गया। `ब्लड म्यूजिक,´ और `टेन्जेण्टस´ ने इन्हें हूयूगो की भी प्रतिष्ठा दिलाई। इन दिनों ग्रेग मुख्य धारा के उपन्यासों के प्रणयन के लिए भी जाने जा रहे हैं। इनके पसन्दीदा थ़ीम विषय वस्तुओं में `ब्रह्माण्डीय तकरारें´ (फोर्ज आफ गाड्स), कृत्रिम ब्रह्माण्ड (इआन्स-पुस्तक माला), संचेतना और रीतिरिवाज (क्वीन आफ एन्जेल्स) और विकासवाद (ब्लड म्यूजिक, डार्विन्स रेडियो और डार्विन्स चिल्ड्रेन ] हैं। इन्हें अमूमन एक `हार्ड साइंस िफ़क्शन´ रचनाकार के रुप में उदधृत किया जाता है। 'फर्मी पैराडाक्स´, द्रष्टा की दृष्टि में `सत्य´, नैनोटेक्नॉलोजी´ भी इनके प्रिय विषय है। नोबेल विजेता साहित्यकार (2007) डोरिस लेसिंग ने भी ग्रेग की कई कृतियों की सराहना की है।
अब आइये इस महान रचनाकार की नवीनतम कृति Quantico पर एक दृष्टि डालें। क्वािण्टकों एक ऐसे निकट भविष्य की झांकी प्रस्तुत करता है जब बेकाबू आतंकवाद का खौफ सारी दुनिया¡ पर तारी हो चुका है। खासकर अमरीकी गली कूंचे तक दहशत व्याप्त है। दुनिया को ऐसे माहौल से निजात दिलाने के लिए एफ0बी0आई0 के एजेण्ट कमर कसकर एक मुहिम पर चल पड़ते हैं , युवा एजेण्टों की इस टीम में विलियम ग्रिफिन , फाऊद अल हुसम और जेन रोलैण्ड (बिना एक अदद नव यौवना के उपन्यास में प्रवाह कहाँ ?) शामिल हैं। सबसे पहले यह टीम अमेरिकी भूमि पर ही पनप रहे एक जी0एम0ओ0 (जीन परिविर्द्धत जीव) के खतरे से जूझती है। प्लेग के जी0एम0ओ0 का अन्देशा बढ़ चला है, इसलिए वे एक जैव आतंक विशेषज्ञ रेबेका रोज की मदद भी लेते हैं। सम्भावित जैव आतंकी ठिकानों, कारस्तानियों की गहन छानबीन और सन्देहजनक रसायनों की जांच परख के बीच कथानक विस्तार पाता है। `क्वािण्टकों´ के प्रमुख पात्रों में एक- ग्रिफिन वैसे तो एफ0बी0आई0 के ही एक नामचीन स्टाफ का बेटा है मगर अपनी खुद की काबिलियत के जरिये उसने संस्थान में सम्मानजनक स्थान बना लिया है। अल हुसम मुसलमान अमरीकी होने का फायदा उठाता है और अपने मध्य पूर्वी मिशन में सहज ही आतंकवादियों से सम्पर्क करने में सफल होता है और जेन रोलैण्ड पाठको को यह अहसास दिलाती चलती हैं कि यह उपन्यास महज पुरुष प्रधान ही नहीं है। एक पात्र नीली भूरी दुरंगी आंखों वाला `जेनेटिक काइमेरा´ है जो एन्थ्रैक्स के एक ऐसे `स्ट्रेन´ को विकसित करने में लगा है जिससे मनुष्यों की प्रजाति विशेष को लक्ष्यबनाकर उनका समूह/वंश नाश किया जा सकता है।
उपन्यास का कथानक यदा कथा बोिझल हो उठता है किन्तु पाठक का मन घटनाक्रमों में अन्त तक रमा रहे इस उद्देश्य में उपन्यास सफल है। `जी0एम0ओ0´ जनित जैव आतंकवाद की एक ठोस पूर्व पीठिका के रुप में यह उपन्यास सदैव याद किया जायेगा।
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