Saturday, March 22, 2014

कुम्भ के मेले में मंगलवासी -समीक्षाएँ

देवेन्द्र मेवाड़ी
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से डा. अरविंद मिश्र की विज्ञान कथाओं का सद्यः प्रकाशित संकलन ‘कुंभ के मेले में मंगलवासी’ पढ़ने का सुखद मौका मिला। सुखद इसलिए कि एक अरसे बाद एक अनुभवी और संवेदनशील विज्ञान कथाकार की भारतीय विज्ञान कथाएं पढ़ने को मिलीं। कभी मैं उनकी विज्ञान कथाओं का प्रथम पाठक हुआ करता था। वर्षों पहले अपने लंबे पत्र-संवादों में हम हिदी में विज्ञान कथाओं की कमी और इस कथा विधा के स्वरूप पर गंभीर चर्चा किया करते थे। तब एक बार मैंने ‘भारतीय विज्ञान कथा’ की बात की थी तो डा. अरविंद ने पूछा था, ‘भारतीय विज्ञान कथा से आपका क्या तात्पर्य है? विज्ञान कथा तो वैश्विक होती है।’ मैंने कहा था, ‘ऐसी विज्ञान कथा जिसमें भारतीय समाज की संवेदनाएं हों।’ आज ‘कुंभ के मेले में मंगलवासी’ संकलन की भारतीय विज्ञान कथाएं पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।

दो दशक पूर्व हम दोनों के रचनात्मक निर्माण के दिन थे। हिंदी विज्ञान कथा के संबंध में एक बार डा. अरविंद मिश्र ने अपने पत्र-संवाद में मुझे लिखा था, “क्या विज्ञान कथाओं में भड़कीले यंत्रों की क्रिया-विधि, उनकी वनावट और कल-पुर्जों की लंबी-चौड़ी दास्तान अहमियत रखती है? बिना इसके वैज्ञानिक कहानी क्या सच्ची विज्ञान कथा नहीं बन सकती? मैं सोचता हूं, आपका जवाब होगा, नहीं, वैज्ञानिक कहानी के लिए यंत्र-तंत्र का ताम-झाम कोई जरूरी नहीं। जी हां, सही फरमाते हैं आप। अगर हम विज्ञान कथा को इस रूप में देखें तो वह हमारे भविष्य के ‘बदले’ हुए समाज के सोच, संस्कृति, रहन-सहन, संस्कारों को किस हद तक रूपायित करती है, तभी शायद हम एक सच्ची विज्ञान कथा का सृजन कर सकते हैं। और, इसके लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों, यंत्रों की विशद जानकारी के बजाए इस ट्रेंड पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जिनसे इन तकनीकी उपलब्धियों के चलते समाज में बदलाव की प्रक्रिया को बल मिलता है। उसके रहन-सहन में कहां तक बदलाव आता है, समाज और व्यक्ति विशेष के नजरिए में क्या फर्क आता है? उसकी अपनी अभिव्यक्ति कहां तक प्रभावित होती है? उसके रिश्ते-नातों पर क्या असर पड़ता है? उसकी मूलभूत भावनाएं कहां तक छूती-अछूती रह पाती हैं? उसके संस्कारों की बेड़ियां क्या और कसती जाती है या टूटनी आरंभ होती हैं, और वह बिल्कुल स्वतंत्र हो जाता है? खुद अपने से भी स्वतंत्र? अपनी देह से भी मुक्ति क्या संभव हो सकेगी? पर, शर्ते यह है कि ज़िदा होने की अनुभूति बनी रहनी चाहिए। क्या हम इन सभी आयामों को विज्ञान कथा के कैनवस में समेट नहीं सकते? शायद भारतीय संदर्भ में एक सच्ची विज्ञान कथा वही होगी जो इस पृष्ठभूमि के साथ न्याय करती हो। (अरविंद मिश्र, 15 जनवरी 1992, बंबई)

खुशी है कि डा. अरविंद मिश्र, ने इस संकलन में इन तमाम बातों को ध्यान में रख कर भारतीय संदर्भ की सच्ची कहानियां लिख कर इस पृष्ठभूमि के साथ न्याय किया है।

संकलन की कहानियां विविध विषयों पर लिखी गई हैं जिसके कारण इनमें से हर कहानी का अपना अलग स्वरूप और पृथक पहचान बन गई है। ये विज्ञान कथाएं उम्र पर नियंत्रण से लेकर साइबर वल्र्ड में अपराधी की पहचान, जीवन खो चुके ग्रह की एकमात्र प्रतिनिधि की त्रासदी, भविष्य में टिहरी के भूकंप से गंगा के लुप्त हो जाने और नदी महाजल योजना से उसे पुनः प्रवाहमान बनाने, भारतीय परंपरा व संस्कारों के दर्शक एलियन, समाज में माता-पिता और अन्य बुजुर्गों से दूर होती जा रही संतानों, देह से परे-चेतना के अस्तित्व, टाइम मशीन से भविष्य में जाकर जीन षड्यंत्र को विफल करने के प्रयास, चुनाव में प्रौद्योगिकी विकास का झांसा देकर सत्ता हथियाने के कुचक्र, जीन रूपांतरित बीजों से पैदा हुई किसानों की विवशता और उनके शोषण, यम के बहाने समय को परिभाषित करने और जैव प्रौद्योगिकी की तकनीक से मनचाही संतान पैदा करने का परिणाम आदि समस्याओं पर लिखी गई हैं। इन कथाओं में हमारा देश-काल, हमारी परंपराएं, सोच और समस्याएं परिलक्षित होती हैं। इन्हें पढ़ते हुए हम कहीं न कहीं अपनी जमीन से जुड़े रहते हैं।

संकलन की विज्ञान कथाएं हैं: अलविदा प्रोफेसर, अंतर्यामी, अंतिम संस्कार, कुंभ के मेले में मंगलवासी, मोहभंग, चिर समाधि, अमरावयम, सब्जबाग, अन्नदाता, स्वप्नभंग और आगत अतीत। लेखक ने भूमिका के रूप में विज्ञान कथा विधा के उत्तरोत्तर विकास का भी चित्रण किया है। डा. अरविंद मिश्र ने विज्ञान कथा साहित्य का गंभीरता पूर्वक स्वाध्याय किया है और उनमें इस विधा में अपने चिंतन से मौलिक सृजन करने की मेधा है। जैसा कि मैं उनसे सदा कहता रहा हूं- उन्हें विज्ञान कथा के सृजन पर अपनी और अधिक ऊर्जा केन्द्रित करनी चाहिए। (हालांकि वे भी मुझसे यही अपेक्षा करते रहे हैं)। हिंदी विज्ञान कथा साहित्य को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। इस दिशा में उनकी हर रचना हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करेगी और यह उनका ऐतिहासिक योगदान होगा।

हिंदी विज्ञान कथाओं के वीरान रेगिस्तान में इस नखलिस्तान के प्रकाशन के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया को हार्दिक बधाई।


डॉ. ज़ाकिर अली रजनीश

हिन्दी में विज्ञान कथा की परम्परा यूं तो 100 साल से भी अधिक पुरानी है, किन्तु आज भी विज्ञान कथाकारों के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। जिस प्रकार हिन्दी की प्ररम्भिक विज्ञान कथाएं (आश्चर्य वृत्तांत-अम्बिका दत्त व्यास, 1884-88 एवं चंद्रलोक की यात्रा-केशव प्रसाद सिंह, 1900) पाश्चात्य विज्ञान कथाकारों की रचनाओं से प्रभावित रहीं और हिन्दी की मौलिक विज्ञान कथा (आश्चर्यजनक घण्टी- सत्यदेव परिव्राजक, सन 1908) के सामने आने में काफी समय लगा, उसी प्रकार आज भी विज्ञान कथाएं तो यत्र-तत्र देखने को मिल जाती हैं, किन्तु मौलिक और प्रभावी विज्ञान कथाओं को पढ़ने के लिए काफी इंतजार करना पड़ता है।

ऐसे परिप्रेक्ष्य में ‘कुंभ के मेले में मंगलवासी‘ नामक विज्ञान कथा संग्रह का सामने आना एक सुखद अनुभूति है। इस विज्ञान कथा संग्रह के लेखक डॉ0 अरविंद मिश्र विज्ञान कथा के चर्चित हस्ताक्षर हैं और सम्प्रति भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति के सचिव भी हैं। आलोच्य संग्रह नेशनल बुक ट्रस्ट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से प्रकाशित हुआ है, जो देश के कोने-कोने में अपनी पहुंच और पुस्तकों को कम दाम पर जन-जन तक पहुंचाने के लिए जाना जाता है।

आलोच्य विज्ञान कथा संग्रह में कुल 11 विज्ञान कथाएं संग्रहीत हैं, जो अपने भिन्न-भिन्न विषयों और रोचक प्रस्तुति के कारण पाठकों को सहज रूप में आकर्षित करती हैं। ये कहानियां जहां एक ओर जेनेटिकली माडिफायिड आर्गेनिज्म के रूप में एक एलियेन सभ्यता की विवशताओं को सामने लाती (अंतिम संस्कार) हैं, वहीं दूसरी ओर हमारी राजनीतिक विद्रूपताओं (सब्जबाग) को भी अपने कथानक में समेट लेती हैं।

इसके साथ ही मनुष्य की शैशवावस्था को शीघ्र पूरा करने की जुगत (अलविदा प्रोफेसर), अपने जातीय पहचान को अमर करने की ललक (अमरा वयम), वैज्ञानिक खोजों की सीमाओं (आगत अतीत) और जीन प्रौद्योगिकी के खतरों (अन्नदाता) सहित सामाजिक अपराधों और उनका निवारण (अन्तर्यामी) और मानव मन की जिज्ञासाओं (स्पप्नभंग) को भी रोचक कथानकों से कहानियों में पिरोया गया है।

इन कहानियों में जो चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है सांस्कृतिक प्रतीकों और पौराणिक घटनाओं का कुशलतापूर्वक उपयोग। हो सकता है इस बिन्दु को लेकर लेखक पर यह आक्षेप भी लगाए जाएं कि कहीं यह विज्ञान पर धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न तो नहीं, पर बावजूद इसके यह कहानियां पाठकों को बांधती हैं, उनका मनोरंजन करती हैं, उनका ज्ञानवर्द्धन करती हैं, उन्हें बेधती हैं और कई बार सोचने के लिए भी विवश करती हैं। यह डॉ0 मिश्र की अपनी विशिष्ट शैली है, जो अन्यत्र बहुत कम देखने को मिलती है।

इससे पूर्व भी डॉ0 मिश्र प्रणीत ‘एक और क्रौंचवध‘ तथा ‘राहुल की मंगल यात्रा‘ विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और विज्ञान कथा प्रेमियों में काफी सराहे गये हैं। आलोच्य विज्ञान कथा संग्रह उसी कड़ी की एक अभिनव प्रस्तुति है, जो लम्बे समय तक एक श्रेष्ठ प्रतिनिधि भारतीय विज्ञान कथा संग्रह के रूप में अपनी पहचान बनाए रखेगा .

नेशनल बुक ट्रस्ट ने अपनी ख्याति के अनुरूप पुस्तक को शानदार कलेवर में प्रस्तुत किया है और मात्र 55 रुपये में इसे उपलब्ध कराकर विज्ञान कथा प्रेमियों को एक शानदार तोहफा प्रदान किया है। इस रोचक कथा संग्रह के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक- कुंभ के मेले में मंगलवासी
लेखक- डॉ. अरविंद मिश्र
प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट, नेहरू भवन, 5, वसंत कुंज, इंस्टीट्यूशनल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110070
पृष्ठ सं.- 69
मूल्य- रू. 55 मात्र।