Showing posts with label विज्ञान कथा. Show all posts
Showing posts with label विज्ञान कथा. Show all posts

Saturday, May 4, 2013

बच्चों के लिए विज्ञान कथा -सपने का सच

बच्चों के लिए विज्ञान  कथा
सपने का सच
इधर कुछ दिनों से रोहित को अजीबोगरीब सपने दिखाई दे रहे थे। कभी तो वह देखता कि वह किसी पहाड़ की चोटी पर खड़ा है और नीचे की वादियों में उड़ रही चिड़ियों की गिनती कर रहा है या फिर किसी बड़ी सी चिड़िया की पीठ पर सवार होकर वह खुद भी आसमान में ऊँचे और ऊँचे उड़ता जा रहा है। हद तो तब हो गई जब एक दिन उसने देखा कि वह खुद ही उड़ने लगा है। सपने में ही वह कुछ चिड़ियों के जमीन पर उछल कर उड़ने के तरीके को ध्यान से देख रहा है और उसी तरह खुद भी उछलते हुए हवा में ऊपर और ऊपर उड़ चला है। वह हाथों को चिड़ियों के डैनों की तरह फैलाते और सिकोड़ते हुए उड़ रहा है और आगे बढ़ता जा रहा है। वह अपने घर के ऊपर उड़ता-उड़ता आ गया है, फिर उड़कर सामने के नीम के पेड़ से भी ऊँचा उठ गया है, जहाँ से वह नीचे गाँव की बस्तियों को देख रहा है। अपने गन्ने के खेत के ऊपर से गुजरते हुए गांव के किनारे पर स्कूल की बिल्डिंग की ओर बढ़ चला है। जहाँ रात का धुंधलका और सन्नाटा है। यहीं तो वह सुबह पढ़ने जायेगा। सपने में भी ये विचार उसके मन में कौंध रहे हैं। वह और आगे बढ़ाना चाहता है, लेकिन उसे डर का अनुभव होने लगता है और हवा में जल्दी-जल्दी हाथ पांव मारते हुए घर लौट चलता है। सपना पूरा हो जाता है। इन दिनों वह इसी सपने को दूसरे सपनों से ज्यादा देख रहा था। ये सभी सपने उसे सुबह उठने पर भी पूरी तरह से याद रहते। एक - एक दृश्य उसकी आँखों के सामने तैरने लगते। वह रोमांचित हो उठता।
***

“पिताजी, आज फिर मैंने वही सपना देखा। काफी देर तक आसमान में उड़ता रहा। फिर आपके बुलाने की आवाज सुनकर नीचे उतर आया।“ रोहित उस दिन सुबह उठते ही अपने पिताजी के सामने रात का सपना बयान कर रहा था।

“पर, मैने तो तुम्हे बुलाया नहीं था बेटे।“ रोहित के पिता जो गांव के प्रधान थे ने चुटकी ली।

“पिता जी, मैं सपने की बात बता रहा हूं।“ रोहित ने मचलते हुए कहा।
“अच्छा बेटे, अब सपने की बात छोड़ो, जल्दी तैयार हो जाओ स्कूल के लिए। सपने की बात फिर कर लेना।“ यह कह कर प्रधानजी घर के बाहर निकल पड़े। रोहित मन मसोस कर रह गया। दरअसल वह आज पिताजी को अपने उड़ने वाले सपने के बारे में विस्तार से चर्चा करना चाहता था... लेकिन उसकी इच्छा पूरी नहीं हो पायी। बुझे मन से स्कूल के लिए तैयार होते हुए उसने सोचा क्यों न वह अपने सपनों की चर्चा कक्षा के अध्यापक से करे। वह नवीं कक्षा का छात्र है, उसके कक्षा अध्यापक विज्ञान पढ़ाते हैं, वे जरूर उसके सपने की समस्या पर विचार करेंगे। यही सोचता विचारता हुआ वह स्कूल के प्रांगण तक जा पहुंचा, बच्चों के शोर से उसका ध्यान भंग हुआ। रेसस में वह अपने स्वप्न की चर्चा विज्ञान के अध्यापक यतींद्रजी से करेगा। उसने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था।

“भई रोहित, तुम्हारे सपने पर तो मैं जानकारी नहीं दे पाऊंगा पर इतना जरूर बता सकता हू¡ कि धरती के गुरुत्वाकर्षण के चलते कोई भी इंसान बिना किसी उपकरण या साधन के सहारे नहीं उड़ सकता। गुरुत्वाकर्षण यानि ग्रैविटी से तो तुम परिचित ही हो। धरती प्रत्येक वस्तु को अपनी ओर खींचती है और इसके प्रभाव के चलते ही हम सतह पर टिके हैं नहीं तो अब तक अंतरिक्ष में विलीन हो जाते। तुम्हारे उड़ने की बात केवल सपने में ही सम्भव है, सचमुच ऐसा नहीं हो सकता।“ रोहित के कक्षा अध्यापक अपराºन अवकाश के समय उसकी जिज्ञासा का समाधान करने का प्रयास कर रहे थे।

“लेकिन सर, उड़ने वाला सपना ही मैं बार-बार क्यों देखता हूं!” रोहित के प्रश्न थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

“भई, मनोवैज्ञानिकों की राय में लोग वही स्वप्न देखते हैं जो वे चाहते हैं मगर वास्तव में अपनी चाहत पूरी नहीं कर पाते। मनुष्य का दिमाग बस उन्हीं मनचाही किन्तु असम्भव बातों को सपने के जरिए हासिल कर लेना चाहता है, हो सकता है तुम्हारे मन में आसमान में उड़ती चििड़यों को देखकर लगता हो कि काश तुम भी उन्हीं की तरह उड़ पाते।“ यतीन्द्र ने यह कहकर रोहित की ओर ध्यान से देखा।
“जी सर, यह तो मेरी इच्छा है कि काश मैं भी चिड़ियों की तरह उड़ पाता।“ रोहित ने तुरन्त हामी भरी।
“फिर तो सारा माजरा समझ में आ गया। जो तुम वास्तव में नहीं कर पा रहे हो, यानि उड़ नहीं पा रहे हो, स्वप्न के जरिए उसी काम को तुम्हारा मस्तिष्क अंजाम दे रहा है।“

“यस सर!” रोहित ने हामी भरी। लेकिन उसे अभी भी यही अनुभव हो रहा था कि उसकी जिज्ञासा पूरी तरह शांत नहीं हो सकी है।
***
अभी स्कूल बन्द होने में थोड़ा समय था किन्तु सरदर्द के कारण रोहित ने घर जाने की अनुमति प्रधानाध्यापक से प्राप्त कर ली। वह एक शार्टकट रास्ते से यानि नहर वाले निर्जन रास्ते से जल्दी घर पहु¡चने के लिए तेज कदमों से चल पड़ा था। अभी वह आधा फासला ही तय कर पाया था कि सहसा एक प्यारी सी आवाज सुनायी पड़ी।
“अरे भई रोहित, जरा मुझसे भी मिल लीजिए।“
“यहाँ कौन?” कहीं कोई भी तो दिखाई नहीं पड़ रहा।
“अरे, मैं तो नहर के बीचो-बीच पानी में हूं। भई रोहित, जरा नहर के मेड़ पर चढ़ो तो।“ फिर से वही मधुर आवाज सुनायी दी।

रोहित सहम गया। कहीं उसने इस नहर वाले रास्ते से चलने का निर्णय लेकर बड़ी गलती तो नहीं की है उसके पिताजी हमेशा मेन रोड वाले लम्बे किन्तु सीधे रास्ते से ही स्कूल आने-जाने के लिए कहते हैं, सहसा ही यह विचार उसके मन में कौंधा।
“अरे डरो नहीं रोहित, मैं तुम्हारा दोस्त हूँ, दुश्मन नहीं। पहले तुम दांयी ओर नहर के ऊपर चढ़ो तो।“ फिर वही आवाज, जिसमें इस बार एक विशेष आमंत्रण था।
रोहित यंत्र सा खिंचा नहर की मेड़ पर चढ़ गया। उसने नहर के पानी में एक काफी बड़े आकार का मेढ़कनुमा जानवर देखा ण्ण्ण् ऐसा जानवर तो उसने कभी नहीं देखा था, वह सहसा बेहद डर गया। डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गई।
“तुम नाहक ही डर रहे हो रोहित, मैं तुम्हारे ग्रह का प्राणी नहीं हूं। मैं अन्तरिक्ष के ऐसे छोर से आया हूं जहां केवल जल ही जीवन है। इसलिए तो मुझे भी इस नहर के पानी में ही शरण लेनी पड़ी है। अब चूंकि धरती का एक तिहाई भाग ठोस धरातल है, जहां तुम जैसे थलचारी हैं और इसलिए हम तुम्हारे पास सीधे आ नहीं सकते। इसलिए तुम्हारे सपनों में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कर संतोष कर रहे हैं।“ रोहित को मानों काटो तो खून नहीं। यह क्या माजरा है भला। सहसा उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। वहां रुके या फिर भाग चले।

“फिर से किस विचार में डूब गये रोहित, मैं तुम्हे कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा, अब मेरा चेहरा-मोहरा तो धरतीवासियों सा है नहीं। यदि मैं दोस्ती की पेशकश करूँ तो तुम ठुकरा दोगे।“ वह मेंढकनुमा सा होकर भी बिल्कुल इन्सानों की जुबान बोल रहा था। उसने अन्तरिक्षवासियों की कहानियाँ पढ़ी तो थीं, तो क्या सामने का जीव सचमुच कोई अन्तरिक्षवासी ही है। कोई दुश्मन अंतरिक्षवासी न होकर एक दोस्त।“ रोहित का दिमाग फिर सक्रिय हो उठा था।

“तुम जो सपने देख रहे हो वे हमारी विचार तरंगों से ही उत्पन्न हो रहे हैं। हमारे ग्रह के वासियों का एक झुंड धरती पर उतर कर यहाँ के जन-जीवन का अध्ययन कर रहा है।“

“भला क्यों?” रोहित के मुँह से अकस्मात निकल पड़ा।
“इसलिए कि हमारे यहाँ जनसंख्या बहुत अधिक हो चली है, हमें बसने के लिए कोई दूसरी जगह चाहिए और इस गैलेक्सी में तुम्हारी धरती जैसा कोई दूसरा ग्रह नहीं, यहाँ तो दो तिहाई पानी ही पानी है अनुमान यह है कि अगली दो शताब्दियों में बढ़ते तापक्रम के चलते उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की सारी बर्फ पिघल जाएगी और तब पूरी तरह जलमग्न धरती हमारे लिए स्वर्ग बन जायेगी´´

“और हमारे लिए नर्क” रोहित के मुंह से फिर अकस्मात ये शब्द फूट पड़े।

“उस स्थिति के लिए हम जिम्मेदार नहीं है रोहित, बहरहाल तुम अपने सपनों को लेकर चिंतित न होओ यह भी जान लो कि तुम्हारा स्वप्न महज एक स्वप्न भर नहीं एक हकीकत है।“

क्या?”

“जी हाँ”, रोहित हमने एक ऐसी ‘एंटी ग्रैविटान’ तरंगो की खोज कर ली है जिसकी मदद से हम दूर-दूर तक अंतरिक्ष भ्रमण कर लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ता, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे ग्रह पर गुरुत्वाकर्षण नहीं है। वहां भी धरती की ही तरह गुरुत्वाकर्षण है, लेकिन एंटीग्रविटान वेब´ के नियंत्रित उपयोग से हम सुदूर अन्तरिक्ष यात्राए¡ कर लेते हैं ये तरंगे हमारे अंतरिक्ष यानों को गुरुत्व के विरूद्ध गति देती हैं।“
“तो क्या मैं भी सचमुच उड़ सकता हूं।“ अचानक रोहित के उड़ने की इच्छा बलवती हो उठी।

“ठीक है रोहित मैं अपने ग्रह-मुख्यालय से संपर्क कर आज रात तुम्हारे इर्द-गिर्द एंटी ग्रैविटी तरंगों का घेरा तैयार करूंगा। तुम रात 11 बजे के आस-पास घर के बाहर निकलना, नहीं तो घर की छत से जाकर चिपक जाओगे। अब तुम जाओ, उड़ने का आनन्द लेने के बाद मुझसे मिलना फिर और बातें होंगी। लेकिन हां, मेरे बारे में किसी को बताना नहीं, क्योंकि कोई विश्वास करेगा नहीं और कोई विश्वास कर भी ले तो उसके यहा¡ तक आने पर मैं छुप जाऊंगा-पानी के भीतर भला कौन देख पाएगा मुझे। बस तुम भले मुझसे मिल सकोगे।“ सहसा ही वह मेढ़कनुमा जीव पानी में डुबकी लगाकर अदृश्य हो गया। स्तब्ध सा रोहित इस अद्भुत घटना पर सोच विचार करता घर की ओर चल पड़ा।
***

“रोहित, रोहित उठो। कब तक सोते रहोगे आज।“ पिता जी की आवाज सुनकर रोहित उठ बैठा।

“रोहित बेटे आज मैंने भी सपना देखा कि तुम रात 11 बजे घर के बाहर निकले। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चल पड़ा। फिर मैंने देखा कि तुम एक जगह थोड़ी देर रुके रहे, फिर आसमान में ऊपर उठ चले और काफी देर तक इधर-उधर मंडराते रहे। फिर धीरे से नीचे उतर आए! भई मैं तो हैरान हूं हम तुम एक जैसा ही सपना देख रहे हैं, आखिर इसका कारण क्या है।“ रोहित के पिता जी की आवाज में चिन्ता की स्पष्ट झलक थी और रोहित इस उधड़ेबुन में था कि सपने का सच पिता को बताए या नहीं। आखिर उन्होंने कोई सपना नहीं बल्कि एक सच्ची घटना जो देखी थी।
 अरविन्द  मिश्र

अंतर्जाल पर प्रथम बार साहित्य शिल्पी द्वारा प्रकाशित 










Saturday, September 25, 2010

ज़ाकिर अली 'रजनीश' की विज्ञान कथा 'निर्णय'

क्या समाज में लड़की का जन्म लेना ही अपराध है? क्या लड़की पैदा होने के लिए सिर्फ स्त्री ही जिम्मेदार है? और क्या लड़की के जन्म को नियंत्रित किया जा सकता है? इन्हीं सवालों से जूझती एक सामाजिक विज्ञान कथा।
'निर्णय'
‘‘देखिए जरीना जी, आप एक बार फिर इस वैक्सीन (एक्स क्रोमोसोम डिजेनेरेटिंग फैक्टर आफ ह्यूमन) के बारे में सोचिए।’’ प्रभाकरन ने स्वयं पर गम्भीरता का नकाब डालते हुए कहा, ‘‘क्योंकि यह आपकी वर्षों की मेहनत और महती आकांक्षाओं का प्रश्न है। .......और फिर क्या जवाब देंगी आप अपनी उस बहन को, जिसे मरने के बाद भी शान्ति नहीं मिल सकी है। क्या आप यह चाहेंगी कि आपकी शेष बहनें भी....?’’

जरीना की वर्षों पुरानी दुखती रग पर हाथ रख दिया था प्रभाकरन ने। जरीना को लगा जैसे किसी ने गर्म लोहे की सलाख उसके दिल के आर-पार कर दी हो। पर बजाय घबराने के उसके शरीर में दृढ़ता आ गयी। उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त हो गया और आंखें इलेक्ट्रिक हीटर की दहक उठीं।

कांप सा गया प्रभाकरन। उसे अपनी गल्ती का एहसास हो आया। उसने सोचा कि अगर अब मैंने एक शब्द भी कहा, तो काम बनने की जगह बिगड़ ही जाएगा। अपने थुलथुल पेट के दाईं ओर सरक गयी टाई को ठीक करते हुए वह चुपचाप खड़ा हो गया और हिम्मत बटोर कर धीरे से बोला, ‘‘अच्छा, तो अब मुझे आज्ञा दीजिए। कल फिर मैं आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा। और आशा करता हूं कि तब तक आप वैक्सीन से सम्बंधित कोई ठोस निर्णय, जो व्यवहारिकता के धरातल पर खरा उतरता हो, ले चुकी होंगी।’’

कहने के साथ ही प्रभाकरन ने अभिवादन किया और नोटों से भरे ब्रीफकेस को वहीं पर छोड़कर कमरे से बाहर निकल गया। साथ ही छोड़ गया वह एक हाहाकारी तूफान, जिसमें से होकर जरीना को बाहर निकलना था और लेना था उसे एक ऐतिहासिक निर्णय, जो किसी महान क्रान्ति के संवहन का गौरव प्राप्त करने वाला था।

काफी देर तक जरीना उसी प्रकार बैठी रही। एकदम मूर्तिवत। यदि पलकों का उठना-गिरना बंद हो जाता, तो शायद यह पहचानना भी मुश्‍किल हो जाता कि वह किसी मूर्तिकार का परिश्रम है अथवा शुक्राणु और अण्डाणु के महामिलन का क्रान्तिकारी सुफल?

विचारों की सरिता में उठने वाले चक्रवातों ने कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि जरीना किसी निष्कर्ष तक पहुंचने में स्वयं को अस्मर्थ महसूस करने लगी। बिच्छू के जहर से बचने के लिए उसने अन्जाने में ही सांप को भी उत्तेजित कर दिया था। और अब उन दोनों के बीच वह निरूपाय सी खड़ी थी। आखिर जाए तो किधर? बस यही एक प्रष्न था, जिसका हल उसे खोजना था।

मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी जरीना को अपने मां-बाप की पहली सन्तान होने का गौरव प्राप्त था। जरीना के जन्म से भले ही उसके मां-बाप के अरमान पूरे न हो पाए हों, पर उसकी नानी की खुशी का पारावार न रहा। उसकी छट्ठी के दिन ही उन्होंने अपनी लाखों की दौलत जरीना के नाम कर दी। उन्हें तो जैसे जरीना के जन्म का ही इन्तजार था। तभी तो अपनी जायदाद के बोझ से मुक्त होते ही उन्होंने इस दुनिया से अपना बोझ भी कम कर दिया। लेकिन जरीना पर इससे कोई विशेष फर्क न पड़ा, सिवाए इसके कि वह नानी की गोद में खेलने के सुख से महरूम रह गयी थी।

अपनी वंश परम्परा बनाए रखने और कम से कम एक पुत्र का पिता कहलाने की चाह में फंसे जरीना के पिता हाकिम प्रतिवर्ष एक सन्तान को दावत देते रहे। लेकिन आश्चर्य कि उनके घर जन्म लेने वाली प्रत्येक सन्तान लड़की ही होती। प्रकृति के इस क्रूरतम (?) मजाक को हाकिम सहन न कर सके और उनका स्वभाव दिन-प्रतिदिन चिड़चिड़ा होता चला गया।

इसके बावजूद उन्होंने आशा का दामन नहीं छोड़ा। यह सोचकर कि शायद अगली बार उनकी मुराद पूरी हो जाए। पीरों-फकीरों की दुआएं काम कर ही जाएं। सो वे दांव पर दांव लगाते गये। लेकिन परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात। और अन्त में एक दिन अपनी आठवीं पुत्री को जन्म देते समय जरीना की मां संसार को अलविदा कह गयीं।

मां की मौत का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ा। घर की सारी व्यवस्थाएं चरमरा गयीं। हाकिम ने उन्हें संभालने का प्रयत्न किया और असफल होने पर अपनी मां की शरण में जा पहुंचे। दादी ने घर में आते ही मां की कमी पूरी कर दी। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद भी वे सबसे छोटी लड़की को संभाल न पाईं। मां की कमी उसे बर्दाश्त नहीं हुयी और निमोनिया के बहाने वह इस संसार के कूच कर गयी। 

नानी ने अपनी वसीयत में यह व्यवस्था कर दी थी कि जब तक जरीना बालिग नहीं हो जाती, उसके पिता को जरीना के खर्च के लिए पूरा पैसा मिलता रहेगा। इस व्यवस्था का सुफल यह निकला कि अपने पिता की कोई बहुत अच्छी आर्थिक स्थिति न होने के बावजूद जरीना का लालन-पालन राज परिवार में जन्मी राजकुमारियों की तरह से हुआ। भले ही उसकी छोटी बहनें पर्याप्त मात्रा में दूध तक न पा सकीं, पर उसे कभी किसी चीज की कमी न हुयी। जब भी उसके मुंह से जो भी निकला, वह तुरन्त हाजिर हो गया।

हाकिम एक फैक्ट्री में बाबू थे। निश्चित तनख्वाह थी। आय का कोई ऊपरी श्रोत था नहीं, इसलिए धीरे-धीरे तंगई ने अपन शिकंजा कसना शुरू कर दिया। बच्चों को पढ़ाना तो दूर उनको सही ढ़ंग से खाना मिलना भी दूभर हो गया। और कोई रास्ता न देखकर हाकिम ने जरीना का नाम बोर्डिंग स्कूल में लिखवा दिया, जिससे कम से कम वह तो ढ़ंग से पढ़-लिख जाए। वैसे भी जरीना को घर में विशेष सुविधाएं मिलने की वजह से उसे अपनी बहनों से अलग रहने की आदत सी पड़ गयी थी, इसलिए हास्टल में उसे कोई विषेश परेशानी नहीं हुयी। वहां के माहौल में उसने जल्दी ही अपने आप को ऐडजेस्ट कर लिया और अपना सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित कर दिया।

स्कूल के बाद कालेज और कालेज के बाद यूनीवर्सिटी। हाईस्कूल से लेकर एम0एस0सी0 तक की उसने सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। जीव विज्ञान में पी0एच0डी0 का भी इरादा था उसका, पर घर वाले उस पर शादी करने के लिए दबाव डालने लगे। चूंकि शुरू से ही उसे अपनी मर्जी के मुताबिक कार्य करने की आदत सी पड़ गयी थी, इसलिए उसे यह फैसला स्वीकार्य न हो सका। बात जब काफी आगे बढ़ने लगी, तो एक दिन उसने स्पष्ट षब्दों में कह ही दिया, ‘‘शादी करना कोई बच्चों का खेल तो नहीं कि जब मां-बाप ने चाहा, डोली पर लाद दिया। जब तक मैं पी0एच0डी0 न कर लूं, शादी करना तो दूर, उसके बारे में सोच भी नहीं सकती।’’

जरीना भले ही कुछ भी हो, पर थी तो वह हाकिम की बेटी ही। और हाकिम को अपनी बेटी से ऐसी उम्मीद कतई न थी। हाकिम को लगा, जैसे किसी ने सीने पर हथौड़ा चला दिया हो। पर वे कर भी क्या सकते थे? एक के लिए वे छः-छः को बैठा कर नहीं रख सकते? सामाजिक मर्यादाओं और अपनी परिस्थितियों के दबाव में उन्होंने फैसला कर लिया कि जरीना चाहे शादी करे या न करे, वे अपनी दूसरी लड़कियों को तो निपटा ही देंगे। 

हालांकि हाकिम की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी न थी और न ही उन्होंने कोई बहुत बड़ी सम्पत्ति संजो कर रखी थी। लेकिन फिर भी किसी तरह से उन्होंने अपनी कोशिशों को अन्जाम देना षुरू कर दिया। जैसा भी हाकिम से बन पड़ा, आश्चर्यजनक ढ़ंग से उन्होंने अपनी बेटियों की जिम्मेदारी का निर्वहन किया। तीसरे साल जरीना की पी0एच0डी0 पूरी होते-होते उन्होंने अपनी छठवीं बेटी की भी नैया पार लगा दी।

जेनेटिक इंजीनियरिंग में डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने के बाद जरीना को सुकून मिला। हालांकि इसके लिए उसे अपने कीमती चार वर्ष होम कर देने पड़े। फिर भी वह पारिवारिक टेंशन, सामाजिक दबाव और मन के अन्तर्द्वन्द्व को झेलकर विजय श्री का मुकुट धारण करने में कामयाब हो ही गयी।

अपनी उपलब्धियों का जखीरा एकत्रित करने के बाद जब जरीना अपने परिवार की स्थिति का जायजा लेने बैठी, तो उसका मन बड़ा खिन्न हुआ। मरजीना और तहमीना की तथाकथित रूप से उम्र ज्यादा हो जाने के कारण उनकी शादियां ऐसे व्यक्तियों से हुयी थीं, जोकि उम्र में उनसे पन्द्रह-पन्द्रह साल बड़े थे और सिर पर विधुर का ताज लगाए हुए थे। 

सफीना ने तो प्रेम विवाह किया था, पर शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब उसका पति पिटाई न करता हो। कारण वही पुराना, दहेज और सिर्फ दहेज। सकीना और शबीना की शादियां ऐसे घरों में हुयी थीं, जहां साल के बारहों महीने फाकाजनी का आलम रहता था। उनके पति चार दिन काम करते, तो सात दिन आराम। जब भूखों मरने की नौबत आ जाती, तो वे अपना होश संभालते। हां, सबसे छोटी आमिना की शादी जरूर अच्छे घर में हुयी थी। पर फिर भी उसे वह सब कुछ नहीं मिल पाया था, जिसकी वह हकदार थी।

एक दिन जरीना दोपहर के समय अपने कमरे में बैठी हुयी अखबार पढ़ रही थी। तभी उसे लगा कि मरजीना घर में मौजूद है। वह अपने कमरे से निकल कर बैठक में पहुंची, तो देखा कि वास्तव में मरजीना अपनी तीन छोटी-छोटी लड़कियों के साथ वहां उपस्थित है। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसके साथ कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हो चुकी है।

सलाम दुआ के बाद जैसे ही जरीना ने मरजीना के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, वह फफक कर रो पडी, ‘‘मैं कहीं की नहीं रही आपा। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया और दूसरी......’’ बाकी के शब्द उसकी सिसकियों के बीच ही कहीं गुम हो गये।

जरीना पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। उसने कांपते स्वरों में पूछा, ‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्योंकि मैं, मैं उनके खानदान का वारिस, एक लड़का नहीं पैदा कर सकी। मेरी कोख इस लायक नहीं हो सकी कि.....।’’

‘‘लेकिन इसमें तुम्हारा क्या कुसूर? इसके लिए तो वो जिम्मेदार है।’’ जरीना लगभग चीखी, ‘‘मैं तुम्हारे साथ यह नाइन्साफी नहीं होने दूंगी। आज ही मैं....।’’

मरजीना ने उसकी बात बीच में ही काट दी, ‘‘नहीं आपा, अब मैं वहां नहीं जा सकती। मैं इस घर के किसी कोने में पड़ी रहूंगी, पर उस दोजख में कभी नहीं जाऊंगी।’’ 

‘‘... ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी।’’ जरीना ने भी अपने हथियार डाल दिये और अपने कमरे में लौट गयी। 

काफी देर तक जरीना बैठी हुयी यह सोचती रही कि आखिर मरजीना लड़का पैदा नहीं कर सकती, तो इसमें उसका क्या दोष? सन्तान के लिंग निर्धारण की सारी जिम्मेदारी पुरूषों के शुक्राणुओं पर निर्भर करती है। यह बात तो आज सभी जानते हैं कि स्त्री में सिर्फ एक्स प्रकार के अण्डाणु (ओवा) पाए जाते हैं। लेकिन पुरूषों के शुक्राणु (स्पर्म) एक्स और वाई दो प्रकार के होते हैं। 

गर्भाधान की क्रिया के दौरान जब पुरूष का एक्स शुक्राणु स्त्री के किसी अण्डाणु से निशेचन क्रिया करता है, तो लड़की पैदा होती है। लेकिन इस क्रिया में यदि वाई शुक्राणु कामयाबी का सेहरा पहनने में कामयाब हो जाए, तो पैदा होने वाली सन्तान लड़का होता है। चूंकि सामान्यतः पुरूष के एक्स शुक्राणु वाई की अपेक्षा कुछ हल्के होते हैं, इसलिए वे इस काम को सम्पन्न करने में कुछ ज्यादा सफल होते हैं। ....लेकिन रूढ़िवादिता से क्रस्त पुरूषों को यह बात समझाए तो कौन? 

इस सवाल के जाल में जरीना कुछ ऐसी उलझी कि उसे शादी जैसे उपक्रम से ही घ्रणा हो गयी। उसने यह फैसला किया कि वह जीवन भर शादी नहीं करेगी। क्योंकि दलदल से बचने का सबसे अच्छा उपाय तो यही है कि उस ओर जाया ही न जाए। 

हाकिम ने जब बेटी का फैसला सुना, तो अवाक रह गये। लेकिन अब उनमें इतनी हिम्मत न बची थी कि वे जरीना को समझाकर और तथाकथित रीतिरिवाजों का वास्ता देकर उसे शादी के लिए राजी करवा सकें। अतः इस समस्या के हल के लिए वे अपनी मां की शरण में पहुंचे। उन्हें उम्मीद थी कि शायद वे जरीना को उसके औरत होने का एहसास करा सकें और लाद सकें उस पर शादी का बोझ, जिसकी परम्परा सदियों से चली आ रही है।

लेकिन दादी भी जरीना के तर्कों के आगे टिक न सकीं। उसकी बातों को सुनकर वे एकदम सन्न रह गयीं। आजकल की लड़कियों की हिम्मत तो देखो, शादी से ही इनकार? ये कयामत के आसान नहीं तो और क्या है? लड़की का दिमाग फिर गया है। और दो उसे इतनी छूट? दिन भर घर के बाहर मंडराएगी, गैर मर्दों के साथ घूमती फिरेगी, तो और क्या होगा? अब तो इस घर की इज्जत को रब्बुलपाक ही बचाए! 

बड़बड़ाते हुए दादी जैसे ही जीने से नीचे उतरने लगीं, हड़बड़ाहट में उनका पैर फिसल गया और वे धड़ाम के साथ नीचे आ गयीं। खण्डहर से जर्जर शरीर में इतनी ताब न बची थी कि वह सिर पर लगी मामूली से चोट को बर्दाश्त कर पाता। अतएव अत्यधिक खून बह जाने के नाम पर उनकी वहीं पर मौत हो गयी।

जरीना और हाकिम के बीच जो दूरी जरीना की नानी की जायदाद ने पैदा की थी, दादी की मौत ने उसे और बढ़ा दिया। हाकिम ने सीधे-सीधे जरीना को अपनी मां की मौत का जिम्मेदार मानते हुए उससे एक तरह से किनारा ही कर लिया। रहते तो वे एक छत के नीचे जरूर थे, पर बिलकुल अजनबी की तरह। न बाप को बेटी से कोई मतलब और न बेटी को बाप से कोई सरोकार। 

धीरे-धीरे समय का पहिया एक वर्ष आगे खिसक गया। अचानक एक दिन सूचना मिली कि सफीना ने अपनी दो बेटियों के साथ आग लगाकर आत्महत्या कर ली है। सफीना उनकी सबसे लाडली बेटी थी। उन्हें पूरा विश्वास था कि वह ऐसा नहीं कर सकती। जरूर उसे उसकी ससुराल वालों ने जला दिया होगा। यही सोच-सोच कर वे एकदम विछिप्त हो गये। 

अक्सर वे चीख पड़ते, ‘‘नहीं-नहीं, उन लोगों ने मेरी बेटी को जिंदा जला डाला। वह उनके लिए एक लड़का नहीं पैदा कर पाई न, इसलिए उन कमीनों ने मेरी बच्ची ...... सफीना को ...... जला दिया। खून कर दिया उन लोगों ने सफीना और उसकी मासूम बच्चियों का। वे खूनी हैं। मैं उन्हें जिन्दा नहीं छोडूंगा। एक-एक को फांसी दिलवाऊंगा।’’

जरीना को भी पूर विश्वास था कि सफीना और उसकी बेटियों की आग लगाकर हत्या की गयी है। उसने सफीना की ससुराल वालों के विस्द्ध अदालत में हत्या का मुकदमा दायर कर दिया। पानी की तरह पैसा बहा, अदालत के सैकड़ों चक्कर लगे, लेकिन इसके बावजूद जरीना ऐसा कोई सबूत न पेश कर सकी, जिससे साबित होता कि सफीना की ससुराल वालों ने उसकी व उसकी बेटियों की हत्या की है। और अन्ततः वही हुआ, जो होना था। सफीना की ससुराल के सभी लोग बाइज्जत बरी कर दिये गये।

इस अनचाहे दर्द से जरीना तड़प कर रह गयी। क्रोध आने लगा उसे अपनी विवशता पर। कितना सड़ गया है हमारा यह समाज, जहां कातिलों को सजा तक नहीं दिलाई जा सकती। वाकई कितना विकृत है इस दुनिया का यथार्थ?

इस सदमें ने जरीना को एकदम तोड़ दिया। खीझ कर उसने स्वयं को अपने आप में कैद कर लिया। न खाने की चिन्ता, न पीने से मतलब। रात-रात भर वह जागती रहती। जब कभी घड़ दो घड़ी के आंख लगती भी, तो उसे सपने में सफीना ही नजर आती। आग से घिरी सफीना, अपनी बच्चियों को गोद में चिपटाए, बेबस।

हमेशा की तरह आधी रात बीत जाने के बाद जब जरीना की आंखें लगीं, तो उस रोज भी सफीना वहां मौजूद थी। झुलसा हुआ चेहरा, एकदम काला, बेहद डरावना। जरीना स्तब्ध रह गयी। धीरे-धीरे चेहरे में हरकत हुयी। उसके होंठ कांपे, ‘‘जानती हो आपा, हमारा ये हाल क्यों किया गया?’’ 

एक क्षण के लिए जरीना जुर्म साबित हो चुके अपराधी की भांति शान्त रही। फिर धीरे-धीरे उसने अपनी शक्ति को एकत्रित किया और कांपते स्वरों में बोली, ‘‘जानती हूं, तुमसे अच्छी तरह से।’’

‘‘फिर आप कुछ करती क्यों नहीं?’’ सफीना का स्वर तेज हो गया, ‘‘इससे पहले कि यह घटना किसी और के साथ दोहरायी जाए, आपको कुछ करना ही होगा।’’

‘‘लेकिन क्या कर सकती हूं मैं ?’’ 

‘‘क्यों, आप तो पढ़ी-लिखी हैं। डाक्टरी पास की है आपने।’’

‘‘ ...............’’

‘‘क्या आप ऐसी कोई दवा नहीं बना सकतीं, जिससे लड़का पैदा किया जा सके ?’’

‘‘नहीं सफीना, ऐसा नहीं हो सकता। वो तो सब प्राकृतिक.........’’ 

‘‘क्यों नहीं हो सकता आपा? क्यों नहीं? इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता? सिर्फ हौसला और लगन होनी चाहिए। .....और फिर आपको ऐसा करना ही होगा। अपनी दूसरी बहनों को दर्दनाक मौत से बचाने के लिए आपको ऐसी दवा बनानी ही हागी। नहीं तो आपकी सारी बहनें इसी तरह एक-एक करके मौत के घाट उतार दी जाएंगी और आप कुछ भी नहीं कर पाएंगी।’’

सफीना का स्वर गूंजता चला गया। और जब शोर हद से ज्यादा बढ़ गया, तो उसकी निद्रा भंग हो गयी। वह हड़बड़ा कर बिस्तर पर उठ बैठी। उसके बाद फिर उसे नींद नहीं आयी। सारी रात उसके कानों में सफीना की बातें गूंजती रहीं। 

उस स्वप्न ने जरीना की सोच को एकदम बदल दिया। हमेशा गुमसुम सी रहने वाली जरीना के पास अब एक उद्देश्य था। उसे एक ऐसी दवा का निर्माण करना था, जो पुरूषों के वाई शुक्राणुओं को अधिक क्रियाशील बना सके। और अगर वह इस काम में सफल हो गयी, तो एक पुत्र के लिए अपने घरों में लड़कियों की लाइन लगा देने वाले और लड़का पैदा न होने की दषा में अपनी पत्नी के घर निकाला दे देने वाले लोग इस पाप से मुक्ति पा सकेंगे।

जेनेटिक इंजीनियरिंग में पी0एच0डी0 की डिग्री प्राप्त करने वाली जरीना ने अपना सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित कर दिया। क्योंकि अगर इस दिशा में कुछ हो सकता था, तो उसकी सारी सम्भावनाएं जेनेटिक इंजीनियरिंग की रिकाम्बिनैन्ट पद्धति में ही निहित थीं। 

लगातार दस वर्षों तक पुस्तकों और अपनी निजी प्रयोगशाला में सिर खपाने के बाद जरीना को मंजिल तक पहुंचने का सूत्र मिल ही गया। और वह सूत्र था लैम्डा फेज वाइरस। इस वाइरस की सहायता से जरीना ने एक्स क्रोमोसोम डिजेनेरेटिंग फैक्टर आफ ह्यूमन वैक्सीन तैयार की, जोकि एक प्रकार की क्लोन्ड जीन थी। 

लेकिन जब इस वैक्सीन के परिणाम सामने आए, तो जरीना कांप उठी। जिस व्यक्ति के शरीर में यह वैक्सीन एक बार पहुंच जाती, उसके शरीर के समस्त एक्स प्रकार के शुक्राणुओं को नष्ट कर देती। इसके साथ ही साथ भविष्य में भी उस व्यक्ति के शरीर में बनने वाले एक्स शुक्राणु निश्क्रिय ही रहते। यानी कि जिस व्यक्ति ने एक बार इस वैक्सीन का प्रयोग कर लिया, तो फिर वह व्यक्ति जिंदगी भर किसी लड़की का पिता नहीं बन सकता था। 

खन्दक से बचने के प्रयास में अन्जाने में ही खाई का निर्माण हो चुका था। यदि यह वैक्सीन बाजार में आ जाती, तो पुत्र-मोहान्ध पुरूषों की बदौलत बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ डालती। चूंकि समाज में लड़कियों का पैदा होना ही आमतौर पर एक बोझ मान लिया जाता है, इसलिए कोई भी पुरूष इससे दूर न रहना चाहता और परिणाम की चिन्ता किए बिना ही वैक्सीन का उपयोग कर डालता। ऐसी दशा में समाज की बनावट में भारी उलटफेर हो जाता और उसका सारा ढ़ाँचा ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता। 

वैक्सीन के सहारे जन्मी लड़कों की खेप भले ही विशेष प्रभावों के कारण वर्णान्धता रोग से दूर रहती, पर जब वह अपनी युवावस्था में पहुंचती, तो उनके जीवन साथी की तलाष आकाश के तारे तोड़ लाने से भी दूभर प्रक्रिया बन जाती। ऐसी स्थिति में उन लोगों के घर जन्मी लड़कियां, जिन्होंने वैक्सीन का प्रयोग नहीं किया था या जिनके हिस्से नकली वैक्सीन आई थी, परमाणु बम से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जातीं। शायद लड़के वाले अपनी बहू लाने के लिए उल्टे लड़की वालों को दहेज देना प्रारम्भ कर देते। तब शायद लोग पांडव स्टाइल में पांच-पांच ही नहीं बीस-बीस या पचास-पचास मिलकर एक पत्नी रखते। स्थिति यहां तक बिगड़ती कि लड़कियों का व्यापार होने लगता और उनका घर से निकलना तक मुश्‍किल हो जाता। 

...और तब ऐसी भयानक स्थिति में शायद किसी वैज्ञानिक को वाई0सी0डी0एफ0एच0 वैक्सीन का निर्माण करना पड़ता, जिसको प्रयोग कर पुरूष सिर्फ लड़कियों को जन्म देते। ऐसी दशा में समाज दो ध्वंसात्मक वर्गों में बंट जाता, जिसके शैतानी पंजों से निकल पाना बिलकुल असंभव सा हो जाता।

कट्टरता कभी भी किसी भी समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती, चाहे वह विचारों की हो या फिर वैक्सीन की। लेकिन वैक्सीन तो बन चुकी थी। और न जाने कैसे यह खबर भारत के सबसे बड़े दवा निर्माता प्रभाकरन तक जा पहुंची। प्रभाकरन एक सफल व्यवसायी के साथ-साथ एक कुशल मनोविज्ञानी भी था। जरीना का पूरा इतिहास जानने के बाद वह उससे मिलने के लिए उसके घर जा पहुंचा। अपना परिचय देने के साथ प्रभाकरन ने जरीना के उन सभी मर्म स्थलों पर चोट पहुंचानी शुरू कर दी, जिनकी वजह से वह वैक्सीन निर्माण की ओर उन्मुख हुयी थी।

..और जब लोहा पूरी तरह से गर्म हो गया, तो उसने चोट करने में देर नहीं की। आकर्षक कमीशन के प्रस्ताव के साथ पेशगी के तौर पर सौ-सौ की नोटों से भरा 21 इंची सूटकेश जरीना की खिदमत में पेश किया गया।

प्रभाकरन को विश्वास था कि जरीना को तोहफे में पेश किया गया सूटकेश वैक्सीन के सूत्र को उस तक लाने में कामयाब हो जाएगा। वह वैक्सीन वास्तव में उसके लिए कुबेर के खजाने की चाबी साबित होने वाली थी। और एक बार जहां उसे वह चाबी मिल गयी, फिर उसे भारत का सबसे बड़ा अमीर बनने से कोई नहीं रोक सकता।

दूसरे दिन जब प्रभाकरन जरीना के घर पहुंचा, तो वह प्रतीक्षारत मिली। कुर्सी पर बैठते ही प्रभाकरन मुस्कराया, ‘‘मैं समझता हूं कि आपने वैक्सीन के सम्बंध में अपना निर्णय ले लिया होगा।’’

कहने के साथ ही उसने जरीना की ओर एक चेक बढ़ाया, ‘‘ये रहे मेरी तरफ से एडवांस, मात्र बीस लाख रूपयों का चेक। बाकी के अस्सी लाख आपको कांट्रैक्ट पर साइन करने के साथ ही दे दिए जाएंगे। इसके अलावा बिक्री प्रारम्भ होने पर प्राफिट पर पच्चीस प्रतिशत कमीशन आपको हर माह मिलता रहेगा।’’

जरीना चुपचाप बैठी रही। उसके भीतर अन्तर्द्धन्द्ध छिड़ा हुआ था। एक तरफ सफीना की दर्दनाक मौत, दस साल की कड़ी मेहनत, नोटों का अम्बार, और दूसरी तरफ इंसानियत और समाज। चुनना तो उसे एक ही था। उसके एक फैसले पर समाज की गति निर्भर करने वाली था। सिर्फ एक ‘हां’ से पूरे समाज का ढ़ांचा ही बदल जाता और छिड़ जातीी एक महान क्रान्ति, जो किन्ही अर्थों में द्वितीय विश्व युद्ध से भी भयानक होती।

जरीना की स्थिति सम्मोहित व्यक्ति की सी हो गयी थी। जैसे उसकी सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो गयी हो। बस जो सामने वाला चाहे, वह होता चला जाए। मौके की नजाकत के विशेषज्ञ प्रभाकरन ने एक पतली सी मुस्कान बिखेरते हुए कांट्रैक्ट फार्म आगे कर दिया, ‘‘लीजिए जरीना जी, प्लीज आप यहां पर साइन कर दीजिए।’’

बिना किसी प्रतिवाद के जरीना ने फार्म उठा लिया। प्रभाकरन का दिल खुशी के मारे बल्लियों उछलने लगा। उसे लगा कि अब दिल्ली दूर नहीं। अब उसके पास होगी अरबों की दौलत। और वह होगा हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा उद्योगपति। 

पर तभी जरीना को अचानक न जाने क्या हुआ? देखते ही देखते उसने कान्ट्रैक्ट फार्म के चार टुकड़े कर दिए। उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त हो चुका था। इससे पहले कि प्रभाकरन कुछ समझ पाए, जरीना के होंठ हिले, ‘‘माफ कीजिएगा प्रभाकरन जी, चंद नोटों के लिए मैं अपने समाज की खुशियाँ नहीं बेंच सकती।’’ कहते हुए जरीना ने सूटकेश को मेज पर पटका और कमरे से बाहर निकल गयी।
...............
'इण्डिया टुडे' ने वर्ष 1996 में राष्ट्रीय स्तर पर युवा कथाकार प्रतियोगिता का आयोजन किया था, जिसमें नारीवादी चेतना पर आधारित यह विज्ञान कथा द्वितीय स्थान पर चुनी गयी थी।

Thursday, November 13, 2008

विज्ञान कथा -तेरी दुनिया ,मेरे सपने -जीशान हैदर जैदी और अरविन्द मिश्रा

विज्ञान कथा "मेरी दुनिया तेरे सपने "जीशान और और मेरा संयुक्त प्रयास है -कहानी थोड़ी लम्बी है पर इसे कई बैठकों में पढ़ कर इसका आनंद उठाया जा सकता है .

Monday, September 1, 2008

विज्ञान कथा : विस्फोट

लीजिए आपकी सेवा में प्रस्तुत है आतंकवाद पर केन्द्रित एक विज्ञान कथा। आशा है आपको यह कहानी अवश्य पसंद आएगी।

आह, ...पानी। सीमा पर शत्रु सेना की गतिविधियों पर नज़र रखे कैप्टन रंजीत के कानों में ये शब्द पड़ते ही वे चौंक उठे। दुरबीन को आंखों के सामने से हटाते हुए वे आवाज़ की दिशा का अंदाज़ा लगाने लगे।

पा..नी। चंद क्षणों के अंतराल के पश्चात वही आवाज़ पुन: सुनाई पड़ी।

उस कम्पित स्वर की व्यथा पहचानने में कैप्टन को ज़रा भी देर न लगी। उन्होंने एक सिपाही को आदेश देते हुए कहा, जाकर देखो, वहां नीचे कौन है?”

हुक्म की तामील के विशेषज्ञ सिपाही ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया। वह कश्मीर की पाक सीमा से लगी उस छोटी सी पहाड़ी से उतरकर इधरउधर देखते हुए सामने की ओर बढ़ चला। बादलों से घिरे होने के कारण उस समय दोपहर भी रात जैसी प्रतीत हो रही थी। पर उसकी सर्चलाईट से तेज़ आंखें उस समय भी झाडियों के आरपार देखने में पूर्णत: सक्षम थीं।

तीसरी बार जब उसने पानी की आवाज़ सुनकर श्रोत की ओर नज़र दौड़ाई, तो आश्चर्य से उसकी आंखें खुली की खुली रह गयीं। सामने लगभग दस फिट की दूरी पर एक कटा हुआ सिर पड़ा था। पानी की आवाज़ उसी के मुंह से आ रही थी। आश्चर्य और रहस्य की उस प्रतिमूर्ति को देखकर सिपाही का शरीर जड़ हो गया। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे, क्या न करे।

क्या हुआ तेजसिंह?” आवाज सुनकर सिपाही ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो दो सिपाहियों के साथ कैप्टन को अपने पीछे मौजूद पाया।

भय के कारण सिपाही के मुंह से कोई आवाज़ न निकली। उसने हाथ से इशारे से कैप्टन का ध्यान उस ओर आकृष्ट कराया। हौलेहौले कदम बढ़ाते हुए कैप्टन उस सिर के पास पहुंचे। उसे देखते ही वे चहक उठे, अरे, ये तो शाहिद है, मेरे बचपन का दोस्त। पर ये यहां... इस हालत में...?”

कैप्टन का दिमाग तेजी से घूमने लगा। शाहिद पिछले कई दिनों से गायब था। फिर अचानक यहां उसका सिर...? और वह भी बोलता हुआ...? कहीं किसी ने उसकी हत्या तो नहीं...? पर कौन कर सकता है ऐसा? यहां तो चारों ओर सेना का सख्त पहरा है। फिर ये सिर यहां कैसे आया? ...और ये सिर बोल कैसे रहा है? बिना धड़ के सिर भला कैसे बोल सकता है...? क्या उसका जिस्म भी यहीं कहीं आसपास...?

रंजीत की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रहस्य के चक्करदार घेरों में उनका दिमाग उलझ कर रह गया। जैसे चारों ओर से सवाल घेरते जा रहे हों और शत्रु के सामने कभी हार न मारने वाले कैप्टन उनके सामने अपने हथियार डालते जा रहे हों।

अपने इस महारथी को बुद्धि के मैदान में पिछड़ते देख, प्यासे की प्यास बुझाने के लिए जल देवता नन्हींनन्हीं बूदों के रूप में धरती पर अवतरित होने लगे।

शाहिद के मुंह में पनी की बूंदे पड़ते ही उसमें पुन: जान आ गयी। एक मुद्दत से प्यासी उसकी ज़बान पानी की बूंदों को जल्दीजल्दी गले के नीचे उतारने लगी। यह सब देखकर कैप्टन सहित तीनों सिपाही हैरान व परेशान थे। उनकी हैरानी के साथ ही साथ प्रतिपल बढ़ती जा रही थी, वर्षा की रफ्तार। और धीरेधीरे वह इतनी तेज़ हो गयी कि पानी में खड़े रहना मुश्किल हो गया। पर फिर भी सभी लोग अपनी जगह स्थिर खड़े थे। जैसे उनके ऊपर कोई जादू कर दिया गया हो।

पर यह क्या? तभी वहां पर एक हाथ और प्रकट हो गया। वातावरण में रहस्य की मात्रा बढ़ गयी। उपस्थित लोगों के चेहरों पर भय की परछाई स्पष्ट नज़र आने लगी।

फिर एक पैर, एक हाथ और प्रकट हुए। बिलकुल किसी जादू की तरह। जैसेजैसे जादू टूटता जा रहा था, अंगों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। अगले ही क्षण जिस्म का शेष भाग भी प्रकट हो गया। यानी की जादू पूरी तरह से टूट चुका था। और इसका सारा श्रेय जाता था मूसलाधार बरसात को। शाहिद को सहीसलामत देखकर चारों लोगों की जान में जान आयी। कैप्टन रंजीत को यह समझते देर न लगी कि यह शाहिद के किसी नए आविष्कार का ही कमाल है।

इसकी हालत बहुत खराब है। जल्दी से इसे लेकर बैरक में चलो। कैप्टन ने सैनिकों को आदेश दिया। तीनों सैनिकों ने झटपट शाहिद को उठाया और कैप्टन के साथ वापस लौट पड़े।

बैरेक के पास ही टेंट से घिरा हुआ एक सैनिक अस्पताल था, जो समयकुसमय सैनिकों के काम आता था। डॉक्टर ने शाहिद के नीले पड़ते शरीर को देखकर यह स्पष्ट कर दिया कि इनके शरीर में किसी तेज़ जहर का प्रवेश हो चुका है। अब इन्हें बचाना नामुमकिन है। हां, इस बात के लिए प्रयत्न किया जा सकता है कि इन्हें अधिक के अधिक समय तक जीवित रखा जा सके।

अपने बचपन के दोस्त शाहिद के बारे में सोचतेसोचते कैप्टन रंजीत टेंट से बाहर निकल कर एक कुर्सी पर बैठ गये। शाहिद की जिन्दगी की तमाम घटनाएं किसी फिल्म की रील की तरह उनकी आंखों के सामने घूमने लगीं।

कैप्टन रंजीत और शाहिद कश्मीर के डोडा जिले के रहने वाले हैं। एक ही मुहल्ले में दोनों के आसपास घर थे। दोनों लोगों में बचपन से ही दोस्ती थी। वे लोग साथ खेलते और साथ ही पढ़ते थे। यही कारण था कि अनजाने में लोग उन्हें भाईभाई समझने की गलती कर बैठते थे।

शाहिद जब चार वर्ष का था, तभी एक बम विस्फोट में उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी। उसकी मां ने उसे और उसकी छोटी बहन को किसी तरह लिखाया–पढ़ाया। वह शुरू से ही पढ़ने में बहुत तेज था। विज्ञान हमेशा उसका प्रिय विषय रहा, जिसका प्रमाण उसने दसवीं की परीक्षा में पिच्चानबे प्रतिशत अंक ला कर दिया।

मां, बहन के प्यार और पढ़ाई की लगन के कारण वह अपने पिता की मौत को जल्दी ही भूल गया। पर जैसे मुकद्दर से यह सब देखा न गया। एक दिन आंतकवादियों द्वारा छोड़ा गया एक रॉकेट उसके घर पर आ गिरा। उस विस्फोट ने उसके जीवन का बचाखुचा सुकून भी छीन लिया।

शाहिद उस समय किसी काम से बाज़ार गया था। लेकिन जब वह लौट कर आया, तो सन्न रह गया। मांबहन दोनों ही लोग हमेशाहमेशा के लिए सो चुके थे। वह अपने घर में एकदम अकेला रह गया। ऐसे मौके पर उसके चाचा ने उसे सहारा दिया। चाचा के पास रहकर ही उसने एम0एस0सी0 की पढ़ाई पूरी की।

पर मुकद्दर का खेल यहीं पर खत्म नहीं हुआ। शाहिद के चाचा की गिनती शहर के धन्ना सेठों में होती थी। आतंकवादियों ने उनसे 10 लाख रूपयों की मांग की। उन्होंने रूपया देने से साफ इनकार कर दिया। आतंकवादियों से उनकी बर्दाश्त नहीं हुई। एक दिन शाम के समय घात लगाकर उन्होंने उनका काम तमाम कर दिया। इस प्रकार शाहिद का अन्तिम सहारा भी हमेशा के लिए छिन गया।

अपने चाचा की मृत्यु को देखकर शाहिद बुरी तरह से हिल गया। उसने आतंकवादियों के उस गढ़ को नेस्तानाबूद करने का फैसला कर लिया, जहां पर उन्हें ट्रेन्ड किया जाता है।

शाहिद की इस प्रतिज्ञा को पूरी करने में उसके चाचा की दौलत ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया। उसने अपने चाचा की सम्पत्ति को बेच दिया और दिल्ली चला गया। वहां पर उसने एक मकान खरीदा और उसमें रिसर्च करने के लिए प्रयोगशाला की स्थापना की। उसके बाद वह अपने कार्य में जीजान से जुट गया। उसका लक्ष्य था एक अनोखा और महान आविष्कार।

सर, उन्हें होश आ गया है। एक सिपाही ने कैप्टन को सूचना दी। जैसे किसी ने उन्हें नींद से जगा दिया हो। वे बड़बड़ाए, किसे होश आ गया?” लेकिन अगले ही क्षण उन्हें सब कुछ याद आ गया। उन्होंने तुरन्त अपनी गल्ती सुधारी, हां, चलो मैं चलता हूं। और फिर वे अस्थायी अस्पताल की परिधि में दाखिल हो गये।

अस्पताल के बेड पर शाहिद शान्त भाव से लेटा हुआ था। उसके गौर वर्णीय जिस्म पर ज़हर की नीलिमा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी।

यूं तो शाहिद ने अपनी जिन्दगी में कई विस्फोट देखे और सहे थे, पर अब उसे उस विस्फोट का इन्तज़ार था, जिसे देखकर उसकी जिन्दगी का विस्फोट सार्थक होना था। पर जिन्दगी का विस्फोट कहीं उस विस्फोट से पहले न हो जाए, इसके लिए वह प्रतिपल अपने आप से जूझ रहा था।

सर, इनके शरीर में ज़हर फैल चुका है। मेरी समझ में तो यह ही नहीं आ रहा कि ये अभी तक जिन्दा कैसे हैं ?” डॉक्टर ने धीरे से अपनी बात कही, पर, ये ज्यादा देर तक जिन्दा नहीं रह सकते। इसलिए आपको इनसे जो कुछ भी... कहते हुए उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।

ठीक है, आप चिन्ता न करें। मैं देखता हूं। कैप्टन मुस्कराए।

ओह, रंजीत तुम ?” कैप्टन रंजीत को देखकर शाहिद के होंठ धीरे से हिले, ये बताओ टाइम क्या हुआ है?”

6.20... पर क्यों, क्या हुआ ?”

ओह, अभी दस मिनट और सब्र करना है?” शाहिद ने निराशा में भरकर एक लम्बी सांस ली।

10 मिनट? इसका क्या मतलब है? तुम यहां कैसे पहुंचे? और तुम्हारा ये हाल कैसे हुआ?” कैप्टन ने एक ही सांस में कई सवाल पूछ डाले।

अपनी उखड़ी सांसों को संभालने का प्रयास करते हुए शाहिद बोला, रंजीत, मैंने अपना बदला ले लिया है। मेरा मिशन पूरा हुआ।

बदला? मिशन? तुम क्या कह रहे हो?” कैप्टन रंजीत कुछ समझ नहीं पाए।

मुझे और मेरे जैसे तमाम परिवारों को तबाह करने वाले आतंकवादियों का गढ़ कुछ समय बाद तबाह होने वाला है। चोरी से बनाए गये वे सभी अड्डे बमों के विस्फोट से इस कदर बरबाद हो जाएंगे कि किसी और को तबाह करने के लायक नहीं रहेंगे।

कहतेकहते शाहिद का मुंह क्रोध से लाल हो गया। कैप्टन रंजीत अपलक शाहिद की बातें सुन रहे थे। शाहिद ने कुछ देर रूक कर अपनी बात पुन: आगे बढ़ाई, तुम्हें मालूम होगा रंजीत, मैं एक आविष्कार करना चाहता था...

हां, मैंने सुना तो था। लेकिन वह आविष्कार क्या था ?”

थोड़ा सब्र करो रंजीत। मरने से पहले मैं तुम्हें सब कुछ बताऊंगा...

तुम ठीक हो जाओगे शाहिद... रंजीत ने उसे दिलासा दिया।

शाहिद धीरे से हंसा, मैं जानता हूं कि मेरे शरीर में ज़हर अंदर तक समा चुका है और इसका कोई इलाज नहीं है। यह मेरे आविष्कार की ही देन है।

कैसा आविष्कार...?”

देश के दुश्मनों से बदला लेने के लिए मैं एक ऐसा पदार्थ बनाना चाहता था, जो प्रकाश को पूरी तरह से सोख ले। ऐसे पदार्थ को जिस सतह पर लगा दिया जाए, वह पूरी तरह से अदृश्य हो जाएगी। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए मैंने दिन–रात एक कर दिए। इस काम में पूरे दस साल लग गये...।

शाहिद लगातार बोलता जा रहा था। न जाने कहां से उसमें इतनी शक्ति आ गयी थी। शायद उसकी आत्मशक्ति ही थी, जो उसे अभी तक जिन्दा रखे हुए थी।

दस साल की मेहनत के बाद मुझे सफलता मिली दो समस्थानिकों और दो सम्भारिकों को बहुत ऊंचे ताप पर संलयित करके मैं वह पदार्थ बनाने में सफल हो गया। लेकिन परीक्षण के दौरान मुझे यह पता चला कि वह ज़हरीला हो गया है। शरीर की त्वचा के संपर्क में आते ही वह उसकी कोशिकाओं को नष्ट करने लगता है। हालांकि वह पानी के द्वारा आसानी से छूट जाता था, लेकिन पानी के साथ मिलकर वह एक विष में बदल जाता है। वही विष इस समय मेरे रोमरोम में समाया हुआ है।

अपनी टूट रही सांसों की डोर को थामने के लिए शाहिद एक पल रूका। फिर उसने अपनी बात आगे बढ़ाई, यह जानने के बाद भी कि उस पदार्थ को अपने शरीर पर लगाना मौत को दावत देने के समान है, मैंने देश के दुश्मनों से बदला लेने के लिए उसे लगाना मंजूर कर लिया। मुझे गर्व है कि मैं अपना मिशन पूरा करने में सफल रहा। अब..., कुछ ही समय बाद वे सब तबाह हो जाएंगे। ...लेकिन अफसोस, मैं उन्हें बरबाद होते हुए देख नहीं सकूंगा...।

एकाएक रंजीत को कुछ ख्याल आया। वे शाहिद की बात काटकर बीच में ही बोल पड़े, ...लेकिन तुम्हें वे बम कहां से मिले और तुम आतंकवादियों के अड्डे तक कैसे पहुंचे?”

इससे पहले कि शाहिद उनकी बात का कोई जवाब देता, कहीं दूर एक जोरदार विस्फोट हुआ। विस्फोट से निकली ऊर्जा से सारा आसमान रोशनी में नहा गया। रोशनी की उस चमक को देखकर शाहिद के चेहरे पर मुस्कान फैल गयी। उसका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। विस्फोट की स्थिति का अंदाज़ा लगाने के लिए कैप्टन रंजीत टेंट से बाहर निकले।

पहले विस्फोट की कौंध अभी शांत भी न होने पाई थी कि एक अन्य विस्फोट से आसमान गूंज उठा। वह विस्फोट भी पहले वाले की तरह ही जबरदस्त और भयानक था। फिर तीसरा, चौथा और पांचवां। उनकी आवाज़ सुनकर ज़मीन ही नहीं, आसमान भी थर्रा उठा।

लेकिन कुछ क्षणों के बाद सब कुछ शांत हो गया और फिर से चारों ओर सन्नाटा छा गया। अंधेरे की गहरी चादर में लिपटा मौत सा सन्नाटा।

रंजीत के चेहरे पर एक अनचाही मुस्‍कान रेंग गयी पर यह समय उस खुशी को व्यक्त करने का नहीं था। वे जल्दी से शाहिद के पास जा पहुंचे। उन्होंने अपना प्रश्न पुन: दोहराया, शाहिद, तुम्हें वे बम कहां से मिले थे?”

पर शाहिद वहां था कहां? जीवन के अन्तिम विस्फोट ने हमेशाहमेशा के लिए उसके दु:खों का अंत कर दिया था।

-ज़ाकिर अली रजनीश

Thursday, February 21, 2008

मनचाही संतान

मित्रों ,मेरी यह विज्ञान कथा नवनीत के ताजे ,फरवरी ,०८ अंक मे छपी है ,आप की सेवा मे प्रस्तुत है - मनचाही संतान
``हैलो, मैं डॉ0 आशुतोष निगम बोल रहा हूँ , क्या यह जेनटिक कम्पनी का मुख्यालय है ? ´´
``जी हाँ , मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ ?´´ उधर से एक सुरीली आवाज सुनायी पड़ी।
``मुझे कम्पनी के इंजीनियर मिस्टर आनन्द मुखर्जी से एपाइन्टमेंट चाहिए´´, डॉ0 निगम ने संयत स्वरों में जवाब दिया।
``होल्ड आन सर´´
डॉ0 निगम को उन चन्द लम्हों का इन्तजार ऐसा लगा जैसे सदियां गुजर गयी हैं। उनका धैर्य बस टूटने ही वाला था कि फिर वही सुरीली आवाज फोन पर गूंज उठी।
``आज ही शाम को चार बजे सर।´´
``ऑ के ´´ डॉ0 निगम ने उत्साह के साथ कहा और फोन का स्विच ऑफ कर दिया। कुछ पल वे किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे फिर विजियोफोन के एक नम्बर पर उंगली से हल्का सा स्पर्श किया। सामने स्क्रीन पर एक महिला की तस्वीर उभर आयी। यह महिला और कोई नहीं डॉ0 निगम की ही पत्नी श्रीमती मधुरिमा निगम थीं.
``मधुरिमा, मैंने जेनटिक इंजीनियर डॉ0 आनन्द से एपाइंटमेंट ले लिया है। आज ही शाम का चार बजे मैं तुम्हें भी साथ लेकर चलूँगा ´´
``नहीं, आप आप अकेले ही जाइये मैं आपके साथ नहीं जा पाऊँगी , मुझे अपनी पेटिंग का अधूरा काम आज ही पूरा करना है .. कल से ही प्रदर्शनी शुरू होने वाली है, जिसमें मैंने अपनी एक ताजातरीन पेंटिंग डिस्प्ले करने का वायदा कर रखा है ऑर फिर आपके एकल निर्णय में मैं भागीदार नही हूँ ,´´ आपको एक शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए, मुझे कलात्मक अभिरूचि की सन्तान, चाहे वह लड़का हो या लड़की मेरे लिए एक समान है´´ श्रीमती मधुरिमा की आवाज सहसा आक्रोश से भर उठी थी और विजियोफोन के स्क्रीन पर उनके तमतमाये हुए चेहरे की लालिमा साफ दिख रही थी।
``ओह! मधु डियर, तुम फिर शुरू हो गयी ... आज अन्तिम तौर पर हमने सुबह यह निर्णय लिया था कि हमारी सन्तान एक शल्य चिकित्सक ही होगी ´´
``मै फिर कहूंगी कि यह आपका अपना निर्णय है, मेरी सहमति न होने के बावजूद भी मैंने आपको अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार दे दिया था। मुझे क्या ....मुझे कोई बच्चा थोड़े ही जनना है, वह मेरे पेट में भी तो नहीं पलेगा... मेरी एक डिम्ब कोशिका ही तो चाहिए, वह मैं दे दूंगी , उसके बाद आप जाने और आपका वह जेनटिक इंजीनियर ,इस विषय पर मुझे अब और डिस्टर्ब मत कीजिए ... प्लीज ... ``इसके पहले कि डॉ निगम कोई प्रतिक्रिया करते उधर से श्रीमती मधुरिमा ने सम्पर्क विच्छेद कर दिया था।
´ ****************
`` डॉ0 निगम! ये रहे विश्व के जाने माने शल्य चिकित्सों की वे स्टेम कोशिकायें, जिनसे मैंने उन जीन पैटर्न को अलग कर लिया है, जिनमें एक शल्य चिकित्सक की विशेषतायें जैसे उंगलियों की बनावट आदि, छुपी हुई है। एक शल्य चिकित्सक के दोनों हाथों की उंगलियों की बनावट, कारीगरी और उसकी त्रिविमीय दृष्टि के कुशल समंजन से ही जटिल से जटिल शल्य चिकित्सा भी आसान हो जाती है ... इन सारे गुणों के वाहक जीन आपके पुत्र में भ्रूणावस्था के दौरान ही प्रत्यारोपित कर दिये जायेगें, जिससे आपका पुत्र एक होनहार शल्य चिकित्सक बन सकेगा।´´ डॉ0 निगम की मुखमुद्रा बता रही थी कि वे डॉ0 मुखर्जी की तकरीर से काफी प्रभावित थे।
``मगर एक मुश्किल यह है डॉ0 ममुखर्जी कि मेरी पत्नी शल्य चिकित्सक के बजाय कलात्मक अभिरूचि ऑर वह भी एक पेन्टर को सन्तान के रूप में चुनना चाहती हैं अब भला आप ही बताइये कि इस देश में एक चित्रकार का भला क्या भविष्य है? सभी पाब्लो पिकासो.. राजा रवि वर्मा या नन्दलाल बोस तो नहीं हो सकते। मेरी पत्नी को ही देखिये, आधी से ज्यादा उम्र गुजर गयी है, अब जाकर एक चित्रकार के रूप में उनकी कुछ पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पायी है .. महज मान-सम्मान ही तो सब कुछ नहीं है, जीवन की तमाम भौतिक आवश्यकतायें भी तो हैं ... डॉ0 निगम भावातिरेक में बहक उठे थे कि तभी डॉ0 मुखर्जी ने उन्हे सायास रोका।
``डॉ0 निगम, यह आपका पारिवारिक मामला है, मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे तो बस आपकी पत्नी की एक डिम्ब कोशिका चाहिए । किराये की कोख यहाँ उपलब्ध है। मेरा आशय धाय माँ के रूप में वालिन्टयर से है, जिसकी व्यवस्था भी हमारी कम्पनी करती है ....हाँ , इसका पेमेन्ट आपको अलग से करना होगा और पूरे नौ महीने इसके गुजारे भत्ते की राशि भी आपको जमा करनी होगी। आखिर आपका सर्जन पुत्र उसकी कोख में ही तो पलेगा ।´´
``जी, जी, मैं सारा व्यय भार उठाने को तैयार हूँ , बस मुझे एक होनहार शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए ।´´ डॉ0 निगम की आवाज में अनुनय का आग्रह था। ``तो फिर ठीक है, काउन्टर पर निर्धारित धनराशि जमा कर दीजिये और भ्रूण आरोपण की तिथि भी वहीं से ले लीजिए ... आपके शुक्राणु और श्रीमती निगम की अण्ड कोशिका प्राप्त करने की तारीख भी आपको वहीं मिल जायेगी।´´ डॉ0 मुखर्जी ने अपनी रिस्ट वाच की ओर देखा जिसका अर्थ था कि डॉ0 निगम से उनके मुलाकात का समय पूरा हो चुका था।
****************
टेस्ट ट्यूब विधि से बाह्य निषेचन की प्रक्रिया यानि इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अब एक आम चिकित्सकीय घटना बन चुकी थी। लिहाजा डॉ0 निगम के वाई शुक्राणु और उनकी पत्नी मधुरिमा द्वारा दिये गये डिम्ब कोष के संयोग से जेनटेक कम्पनी की प्रयोगशाला में निषेचन की प्रक्रिया सहजता से पूरी कर ली गयी थी और आरिम्भक भ्रूणीय विकास के समय ही अतिसूक्ष्म इंजेक्शन प्रणाली से दुनिया के कई मशहूर शल्य चिकित्सकों के चुनिन्दा जीन भी भ्रूण में प्रविष्टि करा दिये गये थे। यह जैवीय रचना अब चिकित्सा विज्ञान के शब्दों में जेनेटिकली माडीफाइड आर्गैनिज्म का दर्जा पा चुकी थी। इसे एक धाय माँ के कोख की जरूरत थी ऑर वह भी यथा समय मुहैया करा दी गयी थी। भावी शिशु के धाय माँ की पहचान उजागर नहीं की गयी थी, किन्तु उसकी देखभाल और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी जेनटेक कम्पनी की थी। जेनटेक जैसी कइ दूसरी कम्पनियों की बदौलत किराये की कोख का व्यवसाय फूल-फल रहा था। गरीबी और भूख से बेहाल बेरोजगारों की विशाल फौज को विज्ञान की दुनिया का नया तोहफा मानो रास आ गया था। ऐसे मामलों में एक अनुबन्ध के जरिये दोनों पक्षों यानि कोखदाता और सन्तान के इच्छुक दम्पति एक दूसरे की पहचान से अनभिज्ञ रहते थे ताकि भविष्य में किसी तरह के सामाजिक, नैतिक या फिर कानूनी जटिलताओं से बचा सके। समय तेजी से बीत रहा था।
किराये की कोख में भ्रूण आरोपण के ठीक 276वें दिन डॉ0 निगम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। प्रसव प्रक्रिया जेनटेक कम्पनी के एक गोपनीय कक्ष में सम्पन्न हुई थी। मा¡-बाप के जेनेटिक मेकअप से बच्चे के डी एन ऐ फिंगर प्रिंट के मिलान से पैतृकता की पुष्टि के बाद जेनटिक कम्पनी ने नवजात शिशु को निगम दम्पत्ति को सौंप दिया था। डॉ0 निगम के यहाँ समारोह सा माहौल था। लोगों की बधाइयों का तांता लगा हुआ था। डॉ0 निगम की भी खुशी का कोई पारावार नहीं .था ... उन्होंने नवजात का प्यारा सा नाम रखा था- मनस्वी। इनका दृढ़ विश्वास था कि आगे उनका यही पुत्र एक प्रख्यात शल्य चिकित्सक बनेगा और परिवार की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगायेगा।
****************
``ललित कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए एक विशिष्ट पुरस्कार डॉ0 मनस्वी निगम को दिया जाता है। सभागार में समवेत करतल ध्वनि गूँज उठी जिसमें उद्घोषक के आगे के शब्द अनसुने रह गये। अगले ही पल डॉ0 मनस्वी निगम मंच पर विराजमान थे। उत्साहित दर्शकों की अहिर्नश, अनवरत तालियाँ मानों निर्णायक मंडल के निर्णय पर अपनी मुहर लगा रही थीं। पेशे से एक चिकित्सक होने के बावजूद डॉ0 निगम ने ललित कला के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी ... अभी उनकी उम्र ही कितनी थी``जीवेत शरद: शतम´´ की आयु स्केल पर उनके जीवन का यह २५वां बसन्त ही तो था। पिछले ही वर्ष उन्हें शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में अभिनव शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। ऑर आज सहस्त्राब्दी चिकित्सा महाविद्यालय के ``एलुमिनी मीट´´ यानि पूर्व छात्र मिलन समारोह के अवसर पर ललित कला के एक पारखी के रुप में उन्हें सम्मानित किया जा रहा था। ..डॉ0 निगम ने उद्बोधन के औपचारिक आग्रह को सहज ही स्वीकार कर लिया था। प्रेक्षागृह की निस्तब्धता यह इंगित कर रही थी कि श्रोतागण उन्हें पूरी तन्मयता से सुनने को उद्यत थे। डॉ0 निगम भाव विह्वल हो उठे ...... उनके शब्द भावपूर्ण किन्तु संयत संबोधन में उनके मुहँ से नि:सृत एक-एक शब्द श्रोतागण ध्यान से सुन रहे थे .....
." आप शायद विश्वास न करें किन्तु मेरी अभी तक की जिन्दगी विडम्बनाओं से भरी रही है ... मेरे पिताजी का निर्णय था कि मैं चिकित्सा के क्षेत्र में ही अपने परिवार का नाम रोशन करूं , क्योंकि चिकित्सा ही मेरा पारम्परिक ऑर पारिवारिक व्यवसाय रहा है। मेरे स्वर्गवासी माता-पिता ने चिकित्सा को ही आजीविका के रूप में अपनाते हुए समाज की आजीवन सेवा की ... उनके वंश परम्परा में चिकित्सा सेवा का क्रम चलता रहे इसलिए मेरे जन्म से पहले ही उनहोंने मुझे चिकित्सक बनाने का संकल्प ले लिया था ...वे ``चिकित्सात पुण्यतमों न किंचित´´ अर्थ्हत चिकित्सा के समान दूसरा कोई पुण्य नहीं है, के पक्षधर थे ... ``डॉ0 निगम पल भर के लिए रूके, मेज से पानी का गिलास उठाया , शुष्क हो रहे गले को आर्द्र किया और फिर बोल पड़े,
``मेरे माता-पिता मुझे शल्य चिकित्सक के रूप में देख्ना चाहते थे, मेरी घोर अनिच्छा के बावजूद कला विषयों के बजाय मुझे प्राणीशास्त्र में दाखिला दिलाया गया। उफ्फ। मेढ़कों के चीर-फाड़ से शुरू हुई शल्य चिकित्सा का पाठ मेरे लिए बहुत पीड़ादायी था। कैंची और चिमटी के बजाय तूलिका-ब्रशों का संस्पर्श मेरी उंगलियों में नयी स्पूर्ति भर देता लेकिन मेरे पिता जी को तो मुझे शल्य चिकित्सक बनाने की धुन सवार थी। मुझे अच्छी कोचिंग दिलवाई गयी ..... मेडिकल इन्ट्रेन्स टेस्ट में मैं चुन भी लिया गया ऑर फिर इस मेडिकल कॉलेज में दाखिला हुआ। सेमेस्टरों और परीक्षाओं का दौर ...एम0बी0बी0एस0 ...एम0एस0 ऑर फिर इसी विश्वविद्यालय से शल्य चिकित्सा के ही नये पहलुओं पर मैंने पी-एच0डी0 भी कर ली ... लेकिन इस व्यस्त जीवनचर्या में भी मेरा अन्तर्मन रंगों के नित नये संयोजनों को ही संजोता रहता। मेरे इस अंकिंचन योगदान को सम्मान योग समझा गया ... मैं आभारी हूँ धन्यवाद।´´´ अन्तिम वाक्य तक आते-आते डॉ0 निगम का गला भर आया था। वे अतिशय भावुक हो उठे थे। एलुमिनी मीट के मनोरंजक सांस्कृतिक कार्यक्रमों को छोड़कर कुछ अनमनस्क से वे घर लौट आये थे। घर में भी डॉ0 निगम का मन अशान्त सा बना रहा । चिकित्सा कर्म उनका पेशा था और चित्रकारिता उनका शौक। एक उनकी जीविका थी तो दूसरा मानो उनका जीवन। जीविका और जीवन के इस अंतर्द्वंद में बुरे फंसे थे डॉ0 निगम। अभी उनके कैरियर की यह शुरूआत भर थी ऑर चिकित्सा जैसी सम्भावनाओं से भरे पेशे को अलविदा करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे। उनके बुजुर्ग परिजनों और सहयोगियों ने उन्हें समझाया था कि महज कला के सहारे उनकी जीवन नैया पार नहीं लगने वाली हैं इसी उधेड़बुन और विचार मंथन में डॉ0 निगम की पलकें बोिझल हो उठी ....उन्हें निद्रा देवी ने अपने आगोश में ले लिया था।
****************
समय चक्र तेजी से घूम रहा था। डॉ0 मनस्वी निगम पेशे से तो चिकित्सक थे किन्तु उनकी ख्याति एक शल्य चिकित्सक के बजाय एक चित्रकार के रूप में उभर रही थी। शल्य चिकित्सा के अपने पुश्तैनी धन्धे का वे बस निर्वाह ही कर पा रहे थे। इसी दौरान वे अपनी एक चिकित्सक सहपाठी डॉ0 मानुषी से परिणय सूत्र में बंध गये थे। वेसे तो धन-वैभव और सम्पत्ति के विस्तार में डॉ0 निगम दूसरे चिकित्सकों की तुलना में काफी पिछड़ गये थे, किन्तु वे सन्तुष्ट थे। शल्य चिकित्सा से तो जैसे उन्होंने मुहँ ही मोड़ लिया था। उनका मन इस पेशे से उचट गया था। जिस कुशलता से उनकी उंगलिया रंगों की तूलिका संभालती थी, शल्य क्रिया के समय मानों वे बेदम हो जाती थीं। वैसे शल्य क्रिया में आज भी उनकी कोई सानी नहीं थी ऑर जटिल से भी जटिल शल्य क्रिया को वे जिस सहजता और कुशलता से अंजाम दे देते थे उनके प्रतिद्वन्द्वी तक भी उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे। किन्तु इस पुश्तैनी काम से उनका मन विरत सा हो गया था। कभी-कभी जब जीवन की इस विडम्बना भरी परिणति से उनका मन अवसाद से भर उठता तब उनकी सहचरी श्रीमती मानुषी उनको उत्साहित करतीं, उनका मनोबल बढ़ाती। फिर भी कुछ घटनायें ऐसी घटती कि डॉ0 मनस्वी को गहरा आघात लगता। अभी उसी दिन तो भारत के राष्ट्रपति को जब उन्होंने एक तैलचित्र भेंट करना चाहा था तो राष्ट्रपति ने उन्हें यह नसीहत दे डाली थी कि अच्छा होता वे एक चित्रकार के रूप में ही शिक्षित हुए होते, नाहक ही उन्हें डाक्टर बनाने पर एक गरीब देश का काफी पैसा बरबाद हुआ। इस घटना ने उन्हें मार्मिक चोट पहु¡चायी थी। किन्तु मानुषी की आत्मीयता और सतत् प्रोत्साहन ने जल्दी ही इस घाव को भर दिया था। उन्होंने अब चित्रकारिता को ही जीवन का ध्येय बना लिया था और इसी ध्येय की प्राप्ति में वे प्राणप्रण से जुट गये थे। शीघ्र ही राष्ट्रीय ऑर अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक चित्रकार के रूप में उनकी पहचान बनने लगी थी और अब जब यूनेस्को ने भी ललित कला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया तो भारत का भी नाम गौरव से ऊंचा उठ गया था। जीवन के प्रति अब तक के उनके सारे गिले-शिकवे दूर हो गये थे। आखिर वे अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शिख्सयत जो बन गये थे।
***************
वह एक ऐसी ही सुरमई शाम थी जैसी कि डॉ0 मनस्वी ने अपनी एक पेिन्टग में उकेरी थी। डूबते हुए सूरज की शनै: शनै: धु¡धलाती लालिमा ऑर वृक्षों की अन्तहीन सी होती परछाईयाँ मानों कोई गुप्त सन्देश दे रही थी। अचानक ही डॉ0 निगम को अहसास हुआ कि यह सन्देश तो खुद उन्ही के लिए ही था। उनके जीवन का चालीसवां बसन्त पूरा होने को आया था ... प्रकृति मानों उन्हें एक सूक्षम संकेत दे रही थी। वंश-वृिद्ध का संकेत। जिसे समझने में उन्होंने देर नहीं की। वे तुरत-फरत विजियोफोन पर एक नम्बर डायल करने लगे। अगले ही पल मशहूर जेनटिक कम्पनी की एक नई शाखा जीनोमैक्स प्राइवेट लिमिटेड की रिसेप्शनिस्ट का सुन्दर चेहरा वीजियोफोन के स्क्रीन पर उभर आया था।
``यस प्लीज .....इट इज जीनोमैक्स .... ए सिस्टर कन्सर्न ऑफ प्रेस्टेजियस जेनटेक कम्पनी ...´´
``कृपया नोट करें, मुझे एक जेनेटिकली मॉडी फाइड चाइल्ड चाहिए ..... एक चित्रकार जिसकी उंगलियाँ रंगों की तूलिका को बखूबी साध सकें , वह संवेदनशील और प्रकृति प्रेमी हो ........
``ओ0के0 सर, आप हमारे संस्थान के डॉ0 नील से आज सांयकाल 6 बजे सम्पर्क कर सकते हैं ....´´
खुद अपने ही अतीत को सहसा भूल बैठे, डॉ0 मनस्वी निगम एक मनचाही सन्तान के लिए व्यग्र हो उठे थे ..... अतीत का एक और दुहराव आसन्न था।