डॉ अरविन्द दुबे एक अच्छे विज्ञान कथाकार हैं उन्होंने यहाँ एक भावपूर्ण आलेख लिखा है और एक वयोवृद्ध (?) विज्ञान कथाकार की चुटकी लेना नहीं चूके हैं जिसने विज्ञान कथाये लिखनी बहुत कम कर दी हैं ! यह पढ़कर मुझे एक वृत्तांत की याद हो आई -बल्कि वार्तालाप कहिये जो जान डब्ल्यू कैम्पवेल जूनियर और आजिमोव में हुआ था जो अब विज्ञान कथा साहित्य के एक सुनहले पृष्ठ के रूप में सुरक्षित है-जब कैम्प बेल अस्टाउन्डिंग के संपादक हुए तो उन्होंने विज्ञानं कथायें लिखनी छोड़ दीं .असिमोव को यह समझ ही न आये कि आखिर हुआ क्या कि एक महान लेखक ने कहानी लिखनी ही बंद कर दी -आखिर इसका कारण पूछने की हिमाकत वे कैम्पबेल से कर ही तो बैठे -
आजिमोव :कैम्पबेल आखिर आप जैसा बड़ा लेखक लिखना कैसे छोड़ सकता है ?
कैम्पबेल :मैं उससे कुछ बेहतर कर रहा हूँ आसिमोव ,मैं अब सम्पादक जो हूँ !
आजिमोव (हिचकते हुए ) क्क्क्क कैसे यह काम कहानी लिखने से बेहतर है ?
कैम्पबेल : मैं जब कहानीकार था तो एक समय केवल एक ही कहानी तो लिखता था
और अब एक साथ पूरे पचास ?
अजिमोव (आख फाड़ते हुए ) आखिर वो कैसे ?
कैम्पबेल : पचास लेखक मेरे प्लाट पर काम कर रहे हैं -मतलब मैं पचास कहानियों पर एक साथ काम कर रहा हूँ !
असिमोव निरुत्तर हो गए ! वे खुद भी एक कैम्पबेल प्रोडक्ट ही तो थे ! विज्ञान कथा के इतिहासकार इस प्रसंग को बखूबी जानते हैं -मगर दुर्भाग्य मेरी हिन्दी पट्टी नहीं जानती ! कारण है कि हम परले दर्जे के अक्रितग्य ,(मतलब कृतघ्न ) और असहिष्णु लोग है ! यहाँ राजनीति में भी जिस सीढ़ी से लोग अर्श तक पहुँचते है उसी को फर्श पर फेक देते हैं -उपेक्षित ! यह प्रवृत्ति ख़ास तौर पर हमारी हिन्दी /गोबर पट्टी में विशेष रूप से है ! न बड़ों के प्रति सम्मान है और न ही उपकारों के प्रति उदार विनम्रता और समर्पण की भावना -हाँ दो शब्द क्या जान जायेगें विषय का स्वयम्भू विद्वान बन अखाडे में ताली ठोकने लगेगें !
और क्या कहूं -हिन्दी विज्ञान कथा की अब यही हालत हो चली है -आत्मान्वेषण की जरूरत है !