Thursday, February 21, 2008

मनचाही संतान

मित्रों ,मेरी यह विज्ञान कथा नवनीत के ताजे ,फरवरी ,०८ अंक मे छपी है ,आप की सेवा मे प्रस्तुत है - मनचाही संतान
``हैलो, मैं डॉ0 आशुतोष निगम बोल रहा हूँ , क्या यह जेनटिक कम्पनी का मुख्यालय है ? ´´
``जी हाँ , मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ ?´´ उधर से एक सुरीली आवाज सुनायी पड़ी।
``मुझे कम्पनी के इंजीनियर मिस्टर आनन्द मुखर्जी से एपाइन्टमेंट चाहिए´´, डॉ0 निगम ने संयत स्वरों में जवाब दिया।
``होल्ड आन सर´´
डॉ0 निगम को उन चन्द लम्हों का इन्तजार ऐसा लगा जैसे सदियां गुजर गयी हैं। उनका धैर्य बस टूटने ही वाला था कि फिर वही सुरीली आवाज फोन पर गूंज उठी।
``आज ही शाम को चार बजे सर।´´
``ऑ के ´´ डॉ0 निगम ने उत्साह के साथ कहा और फोन का स्विच ऑफ कर दिया। कुछ पल वे किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे फिर विजियोफोन के एक नम्बर पर उंगली से हल्का सा स्पर्श किया। सामने स्क्रीन पर एक महिला की तस्वीर उभर आयी। यह महिला और कोई नहीं डॉ0 निगम की ही पत्नी श्रीमती मधुरिमा निगम थीं.
``मधुरिमा, मैंने जेनटिक इंजीनियर डॉ0 आनन्द से एपाइंटमेंट ले लिया है। आज ही शाम का चार बजे मैं तुम्हें भी साथ लेकर चलूँगा ´´
``नहीं, आप आप अकेले ही जाइये मैं आपके साथ नहीं जा पाऊँगी , मुझे अपनी पेटिंग का अधूरा काम आज ही पूरा करना है .. कल से ही प्रदर्शनी शुरू होने वाली है, जिसमें मैंने अपनी एक ताजातरीन पेंटिंग डिस्प्ले करने का वायदा कर रखा है ऑर फिर आपके एकल निर्णय में मैं भागीदार नही हूँ ,´´ आपको एक शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए, मुझे कलात्मक अभिरूचि की सन्तान, चाहे वह लड़का हो या लड़की मेरे लिए एक समान है´´ श्रीमती मधुरिमा की आवाज सहसा आक्रोश से भर उठी थी और विजियोफोन के स्क्रीन पर उनके तमतमाये हुए चेहरे की लालिमा साफ दिख रही थी।
``ओह! मधु डियर, तुम फिर शुरू हो गयी ... आज अन्तिम तौर पर हमने सुबह यह निर्णय लिया था कि हमारी सन्तान एक शल्य चिकित्सक ही होगी ´´
``मै फिर कहूंगी कि यह आपका अपना निर्णय है, मेरी सहमति न होने के बावजूद भी मैंने आपको अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार दे दिया था। मुझे क्या ....मुझे कोई बच्चा थोड़े ही जनना है, वह मेरे पेट में भी तो नहीं पलेगा... मेरी एक डिम्ब कोशिका ही तो चाहिए, वह मैं दे दूंगी , उसके बाद आप जाने और आपका वह जेनटिक इंजीनियर ,इस विषय पर मुझे अब और डिस्टर्ब मत कीजिए ... प्लीज ... ``इसके पहले कि डॉ निगम कोई प्रतिक्रिया करते उधर से श्रीमती मधुरिमा ने सम्पर्क विच्छेद कर दिया था।
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`` डॉ0 निगम! ये रहे विश्व के जाने माने शल्य चिकित्सों की वे स्टेम कोशिकायें, जिनसे मैंने उन जीन पैटर्न को अलग कर लिया है, जिनमें एक शल्य चिकित्सक की विशेषतायें जैसे उंगलियों की बनावट आदि, छुपी हुई है। एक शल्य चिकित्सक के दोनों हाथों की उंगलियों की बनावट, कारीगरी और उसकी त्रिविमीय दृष्टि के कुशल समंजन से ही जटिल से जटिल शल्य चिकित्सा भी आसान हो जाती है ... इन सारे गुणों के वाहक जीन आपके पुत्र में भ्रूणावस्था के दौरान ही प्रत्यारोपित कर दिये जायेगें, जिससे आपका पुत्र एक होनहार शल्य चिकित्सक बन सकेगा।´´ डॉ0 निगम की मुखमुद्रा बता रही थी कि वे डॉ0 मुखर्जी की तकरीर से काफी प्रभावित थे।
``मगर एक मुश्किल यह है डॉ0 ममुखर्जी कि मेरी पत्नी शल्य चिकित्सक के बजाय कलात्मक अभिरूचि ऑर वह भी एक पेन्टर को सन्तान के रूप में चुनना चाहती हैं अब भला आप ही बताइये कि इस देश में एक चित्रकार का भला क्या भविष्य है? सभी पाब्लो पिकासो.. राजा रवि वर्मा या नन्दलाल बोस तो नहीं हो सकते। मेरी पत्नी को ही देखिये, आधी से ज्यादा उम्र गुजर गयी है, अब जाकर एक चित्रकार के रूप में उनकी कुछ पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पायी है .. महज मान-सम्मान ही तो सब कुछ नहीं है, जीवन की तमाम भौतिक आवश्यकतायें भी तो हैं ... डॉ0 निगम भावातिरेक में बहक उठे थे कि तभी डॉ0 मुखर्जी ने उन्हे सायास रोका।
``डॉ0 निगम, यह आपका पारिवारिक मामला है, मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे तो बस आपकी पत्नी की एक डिम्ब कोशिका चाहिए । किराये की कोख यहाँ उपलब्ध है। मेरा आशय धाय माँ के रूप में वालिन्टयर से है, जिसकी व्यवस्था भी हमारी कम्पनी करती है ....हाँ , इसका पेमेन्ट आपको अलग से करना होगा और पूरे नौ महीने इसके गुजारे भत्ते की राशि भी आपको जमा करनी होगी। आखिर आपका सर्जन पुत्र उसकी कोख में ही तो पलेगा ।´´
``जी, जी, मैं सारा व्यय भार उठाने को तैयार हूँ , बस मुझे एक होनहार शल्य चिकित्सक पुत्र चाहिए ।´´ डॉ0 निगम की आवाज में अनुनय का आग्रह था। ``तो फिर ठीक है, काउन्टर पर निर्धारित धनराशि जमा कर दीजिये और भ्रूण आरोपण की तिथि भी वहीं से ले लीजिए ... आपके शुक्राणु और श्रीमती निगम की अण्ड कोशिका प्राप्त करने की तारीख भी आपको वहीं मिल जायेगी।´´ डॉ0 मुखर्जी ने अपनी रिस्ट वाच की ओर देखा जिसका अर्थ था कि डॉ0 निगम से उनके मुलाकात का समय पूरा हो चुका था।
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टेस्ट ट्यूब विधि से बाह्य निषेचन की प्रक्रिया यानि इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अब एक आम चिकित्सकीय घटना बन चुकी थी। लिहाजा डॉ0 निगम के वाई शुक्राणु और उनकी पत्नी मधुरिमा द्वारा दिये गये डिम्ब कोष के संयोग से जेनटेक कम्पनी की प्रयोगशाला में निषेचन की प्रक्रिया सहजता से पूरी कर ली गयी थी और आरिम्भक भ्रूणीय विकास के समय ही अतिसूक्ष्म इंजेक्शन प्रणाली से दुनिया के कई मशहूर शल्य चिकित्सकों के चुनिन्दा जीन भी भ्रूण में प्रविष्टि करा दिये गये थे। यह जैवीय रचना अब चिकित्सा विज्ञान के शब्दों में जेनेटिकली माडीफाइड आर्गैनिज्म का दर्जा पा चुकी थी। इसे एक धाय माँ के कोख की जरूरत थी ऑर वह भी यथा समय मुहैया करा दी गयी थी। भावी शिशु के धाय माँ की पहचान उजागर नहीं की गयी थी, किन्तु उसकी देखभाल और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी जेनटेक कम्पनी की थी। जेनटेक जैसी कइ दूसरी कम्पनियों की बदौलत किराये की कोख का व्यवसाय फूल-फल रहा था। गरीबी और भूख से बेहाल बेरोजगारों की विशाल फौज को विज्ञान की दुनिया का नया तोहफा मानो रास आ गया था। ऐसे मामलों में एक अनुबन्ध के जरिये दोनों पक्षों यानि कोखदाता और सन्तान के इच्छुक दम्पति एक दूसरे की पहचान से अनभिज्ञ रहते थे ताकि भविष्य में किसी तरह के सामाजिक, नैतिक या फिर कानूनी जटिलताओं से बचा सके। समय तेजी से बीत रहा था।
किराये की कोख में भ्रूण आरोपण के ठीक 276वें दिन डॉ0 निगम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। प्रसव प्रक्रिया जेनटेक कम्पनी के एक गोपनीय कक्ष में सम्पन्न हुई थी। मा¡-बाप के जेनेटिक मेकअप से बच्चे के डी एन ऐ फिंगर प्रिंट के मिलान से पैतृकता की पुष्टि के बाद जेनटिक कम्पनी ने नवजात शिशु को निगम दम्पत्ति को सौंप दिया था। डॉ0 निगम के यहाँ समारोह सा माहौल था। लोगों की बधाइयों का तांता लगा हुआ था। डॉ0 निगम की भी खुशी का कोई पारावार नहीं .था ... उन्होंने नवजात का प्यारा सा नाम रखा था- मनस्वी। इनका दृढ़ विश्वास था कि आगे उनका यही पुत्र एक प्रख्यात शल्य चिकित्सक बनेगा और परिवार की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगायेगा।
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``ललित कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए एक विशिष्ट पुरस्कार डॉ0 मनस्वी निगम को दिया जाता है। सभागार में समवेत करतल ध्वनि गूँज उठी जिसमें उद्घोषक के आगे के शब्द अनसुने रह गये। अगले ही पल डॉ0 मनस्वी निगम मंच पर विराजमान थे। उत्साहित दर्शकों की अहिर्नश, अनवरत तालियाँ मानों निर्णायक मंडल के निर्णय पर अपनी मुहर लगा रही थीं। पेशे से एक चिकित्सक होने के बावजूद डॉ0 निगम ने ललित कला के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी ... अभी उनकी उम्र ही कितनी थी``जीवेत शरद: शतम´´ की आयु स्केल पर उनके जीवन का यह २५वां बसन्त ही तो था। पिछले ही वर्ष उन्हें शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में अभिनव शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। ऑर आज सहस्त्राब्दी चिकित्सा महाविद्यालय के ``एलुमिनी मीट´´ यानि पूर्व छात्र मिलन समारोह के अवसर पर ललित कला के एक पारखी के रुप में उन्हें सम्मानित किया जा रहा था। ..डॉ0 निगम ने उद्बोधन के औपचारिक आग्रह को सहज ही स्वीकार कर लिया था। प्रेक्षागृह की निस्तब्धता यह इंगित कर रही थी कि श्रोतागण उन्हें पूरी तन्मयता से सुनने को उद्यत थे। डॉ0 निगम भाव विह्वल हो उठे ...... उनके शब्द भावपूर्ण किन्तु संयत संबोधन में उनके मुहँ से नि:सृत एक-एक शब्द श्रोतागण ध्यान से सुन रहे थे .....
." आप शायद विश्वास न करें किन्तु मेरी अभी तक की जिन्दगी विडम्बनाओं से भरी रही है ... मेरे पिताजी का निर्णय था कि मैं चिकित्सा के क्षेत्र में ही अपने परिवार का नाम रोशन करूं , क्योंकि चिकित्सा ही मेरा पारम्परिक ऑर पारिवारिक व्यवसाय रहा है। मेरे स्वर्गवासी माता-पिता ने चिकित्सा को ही आजीविका के रूप में अपनाते हुए समाज की आजीवन सेवा की ... उनके वंश परम्परा में चिकित्सा सेवा का क्रम चलता रहे इसलिए मेरे जन्म से पहले ही उनहोंने मुझे चिकित्सक बनाने का संकल्प ले लिया था ...वे ``चिकित्सात पुण्यतमों न किंचित´´ अर्थ्हत चिकित्सा के समान दूसरा कोई पुण्य नहीं है, के पक्षधर थे ... ``डॉ0 निगम पल भर के लिए रूके, मेज से पानी का गिलास उठाया , शुष्क हो रहे गले को आर्द्र किया और फिर बोल पड़े,
``मेरे माता-पिता मुझे शल्य चिकित्सक के रूप में देख्ना चाहते थे, मेरी घोर अनिच्छा के बावजूद कला विषयों के बजाय मुझे प्राणीशास्त्र में दाखिला दिलाया गया। उफ्फ। मेढ़कों के चीर-फाड़ से शुरू हुई शल्य चिकित्सा का पाठ मेरे लिए बहुत पीड़ादायी था। कैंची और चिमटी के बजाय तूलिका-ब्रशों का संस्पर्श मेरी उंगलियों में नयी स्पूर्ति भर देता लेकिन मेरे पिता जी को तो मुझे शल्य चिकित्सक बनाने की धुन सवार थी। मुझे अच्छी कोचिंग दिलवाई गयी ..... मेडिकल इन्ट्रेन्स टेस्ट में मैं चुन भी लिया गया ऑर फिर इस मेडिकल कॉलेज में दाखिला हुआ। सेमेस्टरों और परीक्षाओं का दौर ...एम0बी0बी0एस0 ...एम0एस0 ऑर फिर इसी विश्वविद्यालय से शल्य चिकित्सा के ही नये पहलुओं पर मैंने पी-एच0डी0 भी कर ली ... लेकिन इस व्यस्त जीवनचर्या में भी मेरा अन्तर्मन रंगों के नित नये संयोजनों को ही संजोता रहता। मेरे इस अंकिंचन योगदान को सम्मान योग समझा गया ... मैं आभारी हूँ धन्यवाद।´´´ अन्तिम वाक्य तक आते-आते डॉ0 निगम का गला भर आया था। वे अतिशय भावुक हो उठे थे। एलुमिनी मीट के मनोरंजक सांस्कृतिक कार्यक्रमों को छोड़कर कुछ अनमनस्क से वे घर लौट आये थे। घर में भी डॉ0 निगम का मन अशान्त सा बना रहा । चिकित्सा कर्म उनका पेशा था और चित्रकारिता उनका शौक। एक उनकी जीविका थी तो दूसरा मानो उनका जीवन। जीविका और जीवन के इस अंतर्द्वंद में बुरे फंसे थे डॉ0 निगम। अभी उनके कैरियर की यह शुरूआत भर थी ऑर चिकित्सा जैसी सम्भावनाओं से भरे पेशे को अलविदा करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे। उनके बुजुर्ग परिजनों और सहयोगियों ने उन्हें समझाया था कि महज कला के सहारे उनकी जीवन नैया पार नहीं लगने वाली हैं इसी उधेड़बुन और विचार मंथन में डॉ0 निगम की पलकें बोिझल हो उठी ....उन्हें निद्रा देवी ने अपने आगोश में ले लिया था।
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समय चक्र तेजी से घूम रहा था। डॉ0 मनस्वी निगम पेशे से तो चिकित्सक थे किन्तु उनकी ख्याति एक शल्य चिकित्सक के बजाय एक चित्रकार के रूप में उभर रही थी। शल्य चिकित्सा के अपने पुश्तैनी धन्धे का वे बस निर्वाह ही कर पा रहे थे। इसी दौरान वे अपनी एक चिकित्सक सहपाठी डॉ0 मानुषी से परिणय सूत्र में बंध गये थे। वेसे तो धन-वैभव और सम्पत्ति के विस्तार में डॉ0 निगम दूसरे चिकित्सकों की तुलना में काफी पिछड़ गये थे, किन्तु वे सन्तुष्ट थे। शल्य चिकित्सा से तो जैसे उन्होंने मुहँ ही मोड़ लिया था। उनका मन इस पेशे से उचट गया था। जिस कुशलता से उनकी उंगलिया रंगों की तूलिका संभालती थी, शल्य क्रिया के समय मानों वे बेदम हो जाती थीं। वैसे शल्य क्रिया में आज भी उनकी कोई सानी नहीं थी ऑर जटिल से भी जटिल शल्य क्रिया को वे जिस सहजता और कुशलता से अंजाम दे देते थे उनके प्रतिद्वन्द्वी तक भी उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे। किन्तु इस पुश्तैनी काम से उनका मन विरत सा हो गया था। कभी-कभी जब जीवन की इस विडम्बना भरी परिणति से उनका मन अवसाद से भर उठता तब उनकी सहचरी श्रीमती मानुषी उनको उत्साहित करतीं, उनका मनोबल बढ़ाती। फिर भी कुछ घटनायें ऐसी घटती कि डॉ0 मनस्वी को गहरा आघात लगता। अभी उसी दिन तो भारत के राष्ट्रपति को जब उन्होंने एक तैलचित्र भेंट करना चाहा था तो राष्ट्रपति ने उन्हें यह नसीहत दे डाली थी कि अच्छा होता वे एक चित्रकार के रूप में ही शिक्षित हुए होते, नाहक ही उन्हें डाक्टर बनाने पर एक गरीब देश का काफी पैसा बरबाद हुआ। इस घटना ने उन्हें मार्मिक चोट पहु¡चायी थी। किन्तु मानुषी की आत्मीयता और सतत् प्रोत्साहन ने जल्दी ही इस घाव को भर दिया था। उन्होंने अब चित्रकारिता को ही जीवन का ध्येय बना लिया था और इसी ध्येय की प्राप्ति में वे प्राणप्रण से जुट गये थे। शीघ्र ही राष्ट्रीय ऑर अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक चित्रकार के रूप में उनकी पहचान बनने लगी थी और अब जब यूनेस्को ने भी ललित कला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया तो भारत का भी नाम गौरव से ऊंचा उठ गया था। जीवन के प्रति अब तक के उनके सारे गिले-शिकवे दूर हो गये थे। आखिर वे अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शिख्सयत जो बन गये थे।
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वह एक ऐसी ही सुरमई शाम थी जैसी कि डॉ0 मनस्वी ने अपनी एक पेिन्टग में उकेरी थी। डूबते हुए सूरज की शनै: शनै: धु¡धलाती लालिमा ऑर वृक्षों की अन्तहीन सी होती परछाईयाँ मानों कोई गुप्त सन्देश दे रही थी। अचानक ही डॉ0 निगम को अहसास हुआ कि यह सन्देश तो खुद उन्ही के लिए ही था। उनके जीवन का चालीसवां बसन्त पूरा होने को आया था ... प्रकृति मानों उन्हें एक सूक्षम संकेत दे रही थी। वंश-वृिद्ध का संकेत। जिसे समझने में उन्होंने देर नहीं की। वे तुरत-फरत विजियोफोन पर एक नम्बर डायल करने लगे। अगले ही पल मशहूर जेनटिक कम्पनी की एक नई शाखा जीनोमैक्स प्राइवेट लिमिटेड की रिसेप्शनिस्ट का सुन्दर चेहरा वीजियोफोन के स्क्रीन पर उभर आया था।
``यस प्लीज .....इट इज जीनोमैक्स .... ए सिस्टर कन्सर्न ऑफ प्रेस्टेजियस जेनटेक कम्पनी ...´´
``कृपया नोट करें, मुझे एक जेनेटिकली मॉडी फाइड चाइल्ड चाहिए ..... एक चित्रकार जिसकी उंगलियाँ रंगों की तूलिका को बखूबी साध सकें , वह संवेदनशील और प्रकृति प्रेमी हो ........
``ओ0के0 सर, आप हमारे संस्थान के डॉ0 नील से आज सांयकाल 6 बजे सम्पर्क कर सकते हैं ....´´
खुद अपने ही अतीत को सहसा भूल बैठे, डॉ0 मनस्वी निगम एक मनचाही सन्तान के लिए व्यग्र हो उठे थे ..... अतीत का एक और दुहराव आसन्न था।

8 comments:

  1. यह तो विज्ञान कथा है, पर मैं इसे अपने सन्दर्भ में ले रहा हूं। शिक्षा से इंजीनियर, पेशे से रेलगाडी का परिचालक, मन माने तो एक कम्प्यूटर, किताबें और एक छोटा कमरा चाहिये।
    मिश्र जी; जीनेटिक्स या उसके बिना, हम जो होना चाहते हैं, उसकी बजाय किसी अन्य फील्ड में काम करना या उत्कृष्टता दिखाना हमारी मजबूरी क्यों हो जाता है?!
    सुन्दर लगी यह रचना। याद रहेगी।

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  2. "नवनीत" के बाद इस कहानी को यहां देखना अच्छा लगा। इस सुन्दर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई।

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  3. हमेशा की तरह ये कहानी भी मन को छू गई.

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  4. अरविंद सर जी
    एक रचनाकार व कलाकार के मानसिक द्वंद को सही उकेरा है निश्चित रूप से आने वाला समय इसी तकनीक का होगा टैब शायद विज्ञापनों की भाषा बदल जायेगी प्रस्तुति के लिए बधाई

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  5. बहुत कुछ कहा अनकहा कह देने वाली कहानी लगी यह आपकी ...इतनी सुंदर कहानी आपने हमें इतनी देर से पढ़वाई .:)

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  7. बहुत ही ज्ञानवर्धक विज्ञान कथा है, बहुत कुछ इसमें छुपा हुआ अनकहा कितनी सरलता से समझ में आ जाता है। आपका लिखने का अंदाज़ काफी शानदार है। आभार ।

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