Monday, September 10, 2007

जार्ज आर्वेल और उनकी साहित्यिक विरासत

जार्ज ओर्वेल की मशहूर कृति ,१९८४ शायद आप मे से किसी ने जरूर पढी होगी . अगर ना भी पढी हो तो कोई बातनही आज मैं आपको इस महान ब्रितानी उपन्यासकार के जीवन और कृतित्व के बारे मे बताने जा रहा हूँ जिसनेसाहित्य के वैश्विक पटल पर कभी तहलका मचा दिया था , खासतौर पर विज्ञान कथा साहित्य दुनियां मे.
जार्ज आर्वेल और उनकी
साहित्यिक विरासत


जार्ज आर्वेल (1903-1950) एक वह छद्म नाम्नी शfख्सयत़ हैं, जिन्होंने अपनी मात्र दो औपन्यासिक कृतियों के जरिये विज्ञान कथाकारों के बीच `बिग ब्रदर´ का दर्जा हासिल कर लिया। `एनिमल फार्म´ और `1984´ उपन्यासों के रचयिता इरिक आर्थर ब्लेयर ने अपनी इन दोनों कृतियों के सहारे `जार्ज आर्वेल´ के छदम् नाम से रातो रात शोहरत के शिखर को छू लिया।
जीवन की झलकिया¡ :
भारत में ही 1903 में जन्में ब्लयेर इंडियन सिविल सेवा में कार्यरत एक अंग्रेज की सन्तान थे और खुद भी ब्रितानी हुकूमत के एक लम्बे अरसे तक मुलाजिम रहे। वे ब्रितानी हुकूमत के अधीन बर्मा और इटन शहर में कार्यरत रहे। उनकी माली हालत सरकारी सेवा के दौरान अच्छी नहीं रही। उन्होंने एक रचनाकार-लेखक के रुप में भाग्य आजमाना चाहा और संयोग से बात बन गई। अपनी खराब माली हालत के चलते वे अपने सेवाकाल में कभी भी भद्र/अभिजात्य अंग्रेज वर्ग की बराबरी में नहीं आ सके, जबकि ऐसे जीवन को वे तरस रहे थे। अभिजात्य अंग्रेजों के बीच अपनी हालत को लेकर वे `हीनता ग्रfन्थ´ के शिकार भी हो गये थे और उनके (उच्च अंग्रेज वर्ग के) प्रति उनमें एक तरह का विद्रोह पनप रहा था। अमेरिका में तो `हिप्पी´ संस्कृति की शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी, किन्तु इस ब्रितानी रचनाकार ने 1920 के दशक से ही हिfप्पयों जैसा रहन सहन और वेष भूषा अपना ली थी। उन्हें लन्दन और पेरिस की झोपड़ पटि्टयों में रहने का चस्का लगा जहा¡ की मानवेतर स्थितियों से उन्हें अपनी पुस्तकों की पृष्ठभूमि सामग्री मिलती गयी। वे मूलत: समाजवादी विचार धारा के पोषक थे किन्तु स्पेनी साम्यवादियों, अराजक विचारकों के आगे उन्हें झुकना पड़ा। स्पेन के संगठित साम्यवादियों से जान का खतरा भा¡पते हुए उन्होंने आखिरकार स्पेन को अलविदा कह दिया। साम्यवादियों के कथित दु:श्चक्रों से ऊब कर उन्होंने उनके विरुद्ध एक आजीवन रचनात्मक विद्रोह छेड़ा, जिसकी सुखद परिणति विज्ञान कथा साहित्य के ेमशहूर धरोहरों में हुई- `एनिमल फार्म´ और `1884´ ! अपनी इन दोनों कालजयी कृतियों के माध्यम से ब्लेयर ने शब्दों के बलबूते साम्यवादियों से वह लड़ाई जीतनी चाही, जिसे दरअसल वे व्यवहार में हार चुके थे। यहा¡ तक कि उनकी अपने ब्रितानी लेबर पार्टी से भी नहीं पटी और अपने खास समाजवादी विचारों के कारण उन्हें सेना में भरती से मना कर दिया गया।
एनिमल फार्म :
कम्युनिस्टों के प्रति उनके मन में विद्रोह की चिन्गारी सुलगती रही जो स्टालिन के साम्यवाद के खिलाफ शोला बनकर भड़क उठी। नतीजतन, उस समय जबकि ब्रितानी सेना रुसी सेना के सहयोग से नाजियों के विरुद्ध जूझ रही थी आर्वेल ने `एनिमल फार्म´ की रचना की जो रुसी क्रान्ति पर एक जोरदार व्यंग था। इस उपन्यास का एक जुमला बहुत प्रसिद्ध हुआ, ``आल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल दैन अदर्स´´। उपन्यास में एक दरबे में रहने वाले पशुओं का अपने मानव स्वामियों के विरुद्ध किये गये विद्रोह का कटाक्षपूर्ण रुपक चित्रित हुआ है।
ब्लेयर ने `एनिमल फार्म´ की रचना 1944 में पूरी कर ली थी। किन्तु ब्रिटेन पर सोवियत रुस के प्रभाव के चलते उन्हें इसका प्रकाशक ढूढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। बहरहाल द्वितीय, विश्वयुद्ध के खत्म होते ही `एनिमल फार्म´ का प्रकाशन हो गया और इस उपन्यास ने ब्लेयर के लेखकीय कैरियर को सहसा ही उछाल दिया। इस उपन्यास से अर्जित धन और सम्मान ने उन्हें अपनी अगली विश्व विश्रुत कृति, `1984´ के लिए प्रेरित किया।
बहुचर्चित कृति, ``उन्नीस सौ चौरासी´´ :
`1984´ का प्रकाशन 1949 में हुआ, जिसमें स्टालिन जैसे तानाशाह के अधीन शासित 1930 के दौर के रुसी साम्राज्य के विश्वव्यापी फैलाव की आशंकाये व्यक्त हुई थीं। यह साम्यवादी और विरोधी राजनीतिक विचारों के द्वन्द्व को अभिव्यक्त करती एक अद्भुत कृति मानी गयी, जिसमें बर्बर नाजियों और यातनागृहों के उल्लेख के साथ ही हतभाग्य यहूदियों की दीन दशा भी वfर्णत हुई है।
यह विशुद्ध रुप से एक स्टालिन (वाद) विरोधी-कृति मानी गयी - यद्यपि कालान्तर में इसे किसी भी तानाशाही प्रवृत्ति या नागरिकों के निजी जीवन में बढ़ते सरकारी हस्तक्षेपों के विरुद्ध आवाज उठाने वाली एक प्रभावशाली कृति के रुप में मान्यता मिलने लगी। `बिग्र ब्रदर इज वाचिंग यू´ (देखो, खूसट दादा/बुड्ढा देख रहा है) इसी उपन्यास से निकला हुआ जुमला है जिसका इस्तेमाल प्राय: निजी जीवन में किसी के हस्तक्षेप-ताक झांक के प्रयासों के समय किया जाता है। यह वाक्य-जुमला निजता में हस्तक्षेप के विरुद्ध कुछ न कर पाने की असहायता को भी इंगित करता है। एक तरह से `1984´ का `बिग ब्रदर´ महज एक राजनीतिक बड़बोलेपन को ही रुपायित नहीं करता बल्कि उपन्यास में वfर्णत विज्ञान, श्रमिक सभी कुछ बड़े ही हैं, जिनसे पार पाना सम्भव नहीं है। क्या उपन्यास में वfर्णत `1984 सरीखा ही होगा वास्तविक 1984? लोगों के मन प्राय: यह प्रश्न कौंधा करता।
1984 आया और चला गया मगर `आर्वेलियन´ `1984´ की दहशतनाक, हौलनाक तस्वीरें पूरी तरह से हकीकत में तब्दील नहीं हुईं। दुनिया¡ ने तब राहत की सा¡स ली थी, जिसमें इन पंक्तियों का लेखक भी था। मगर क्या 1984 की सारी सम्भावनायें एक सिरे से खारिज हो चुकी है? शायद नहीं। हाँ , उपन्यास ने एक विज्ञान कथात्मक साहित्य के रुप में नि:सन्देह अपार ख्याति अर्जित की, यद्यपि ब्लेयर स्वयं गौरव के इन क्षणों के भागीदार नहीं बन सके। वे लन्दन के एक टी0बी0 अस्पताल में इसी रोग से मात्र 47 वर्ष के अल्पायु में ही, जनवरी 1950 में चल बसे यानी `1994´ के प्रकाशन के बस चन्द महीनों के बाद। कहते हैं कि ब्लेयर की अवश्यम्भावी मृत्यु के पूर्वाभास ने भी 1984 के कथानक को और तिक्त बना दिया था।
1984 की कथावस्तु :
आइये `1984´ के विज्ञान कथा (वस्तु) का भी एक जायजा लिया जाय। आर्वेल एक ऐसे `ग्रेट ब्रिटेन´ की कल्पना करते नज़र आते हैं जहा¡ रुसी क्रान्ति सरीखा परिवेश है, जिसमें स्टालिन जैसे एक `बिग ब्रदर´ की तूती बोलती है- वह जो चाहता है, करता है एक निरंकुश, निष्ठुर आक्रान्ता की तरह। उपन्यास के लिखे जाने तक चू¡कि टेलीविजन का आगाज हो चुका था अत: इस कृति में लन्दन सरीखे शहर में जहा¡ सारी व्यवस्थायें फेल हो रही हैं, टी0वी0 बेखाख्ता चालू है स्विच हर पल, हर घण्टा वह आफ´ नहीं हो सकता क्योंकि इसी के सहारे तरह-तरह के सरकारी निर्देश हर क्षण प्रसारित हो रहे हैं। यह एक तरफा टी0वी0 संचार नहीं बल्कि दुतरफा संवाद वाला टी0वी0 है, जिसे देखने वाले भी कहीं से (बिग ब्रदर!) देखे जा रहे होते हैं। हर वक्त नागरिकों के निगरानी की सूझ, `1984´ की विशिष्ट दूर दृष्टि है। भले ही कोई बाथरुम में हो या निद्रा मग्न हो उसकी निगरानी जारी रहती है। अर्थात `होशियार! खूसट बुड्ढा देख रहा है´। हर कोई एक दूसरे को वाच कर रहा है- किसी का किसी पर भरोसा नहीं है, सभी सन्देह के दायरे में हैं।
विज्ञान कथा समीक्षकों की दृष्टि में `1984´ को आश्चर्यजनक रुप से एक `लो ग्रेड´ `साइंस फिक्शन´ का दर्जा मिला है, जबकि मुख्य धारा के साहित्य में इसकी सर्वत्र चर्चा हुई है, समादर हुआ है। आइज़क आसीमोव, जहाँ इसे एक `खराब साइंस फिक्शन´ का नमूना मानते हैं, अनेक अमेरिकी-ब्रितानी साहित्यकार इसे एक आँखें खोलने´ वाली कृति करार देते हैं। कहीं, आसिमोव सरीखा मसीहा विज्ञान कथाकार भी आर्वेल के `बिग ब्रदर´ वाली इमेज से खौफ तो नहीं खा गया- कहीं वे आशंकित तो नहीं हो उठे थे कि हो न हो आर्वेल अपनी एक कृति से ही कहीं `विज्ञान कथाकारों´ के `बिग ब्रदर´ न बन जा¡य। इतिहास साक्षी है वे `बिग ब्रदर बन ही बैठे।
1984 की ओर बढ़ रही है दुनिया¡!
एक कहावत है `जो बीत गई सो बात `गई´ मगर शायद आर्वेल की मशहूर कृति, 1984 के मामले में यह लागू नहीं होती। भले ही, 1984 तक `आर्वेल के दु:स्वप्न पूरी तरह से साकार नहीं हुए थे और जिसे देखने के लिए सौभाग्य से वे जिन्दा भी नही थे( `1984´ की कल्पित दुनिया¡ के वे कतिपय दहशतनाक पहलू जल्दी ही साकार होने लग गये थे जो हमारी अभिव्यक्ति और निजता की आजादी से सीधे जुड़े हुए हैं।