भारत में सदियों से कहानी कहने सुनने का प्रचलन है...दादा, दादी की कहानियाँ दर पीढ़ी बच्चों ने सुनी है, भले ही उनमें ज्यादातर परीकथाएँ रही हों मगर वे अपने समय की मजेदार कहानियाँ रही हैं.. तब मानव का विज्ञान जनित प्रौद्योगिकी से उतना परिचय नहीं हुआ था. नतीजन परी कथाओं में फंतासी और तिलिस्म का बोलबाला था मगर वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही नित नए नए गैजेट, आविष्कारों, उपकरणों, मशीनों की लोकप्रियता बढ़ी, लोगों के सोचने का नजरिया बदला और बच्चों को भी यह समझते देर नहीं लगी कि परियाँ, तिलस्म, जादुई तजवीजें सिर्फ कल्पना की चीजे हैं। आज आरंम्भिक कक्षाओं के बच्चों को भी यह ज्ञात है कि चन्द्रमा पर कोई चरखा कातने वाली बुढि़या नहीं रहती बल्कि उस पर दिखने वाला धब्बा दरअसल वहां के निर्जीव गह्वर और गड्ढे हैं, अपनी धरती को छोड़कर इस सौर परिवार में जीवन की किलकारियां कहीं से भी सुनायी नहीं पड़ी हैं..आज मनुष्य अन्तरिक्ष यात्राएं करने लग गया है और सहसा ही अन्तरिक्ष के रहस्यों की परत दर परत हमारे सामने खुल रही है।
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति (1750 से 1850) ने मनुष्य को सहसा ही मशीनों की ताकत का अहसास दिलाया, रेल पटरियों पर दैत्याकार भाप के इंजन वाली रेल दौड़ी तो लोगों में भय और विस्मय का संचार हुआ..स्विच दबाने मात्र से अँधरे को छूमंतर करने वाली बिजली ने विशाल मशीनों में भी प्राण फूंक दिया और उनके संचालन का जिम्मा खुद संभाल लिया। मनुष्य को शारीरिक श्रम से बच रहने और आरामदायक जीवन का विकल्प अब सामने था.. मगर तभी कुछ विचारवान लोगों के मन में शंकाएं भी उभरीं-कहीं ये मशीनें मनुष्य की अहमियत को खत्म तो नहीं कर देंगी? मतलब कहीं मनुष्य को मशीने विस्थापित तो नहीं कर देंगी ? उसे बिना काम धाम का निठल्ला तो नहीं बना देगीं ?.. और सबसे बढ़कर यह है कि कहीं मशीने खुद मसीहा तो नहीं बन उठेगीं ? कहीं वे स्वयंभू बन मनुष्य के अधिपत्य को ही तो चुनौती नहीं दे डालेंगी ? मनुष्य के यही आरम्भिक संशय जल्दी ही एक साहित्यिक अभिव्यत्ति का सूत्रपात करने वाले थे जिसे कहानी की एक नयी विधा के रूप में पहचाना जाना था, यह थी विज्ञान कथाओं (साईंस फिक्शन) की आहट.. यह उन्ही दिनों की बात है जब मेरी शेली जो जानेमाने कवि पर्सी बिसी शेली की पत्नी थीं ने अपना पहला उपन्यास लिखा था- फ्रैन्केंन्स्टीन (1818) और उसमें विज्ञान के प्रति ऐसी ही आशंकाएं मुखरित हुयी थीं, आज यह उपन्यास पहले आधुनिक विज्ञान कथा की पदवी से सुशोभित है। मशहूर अमेरिकी विज्ञान कथाकार आईजक आजिमोव (1920-1992) इसलिए ही लिखते हैं कि विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभावों के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया को कुरेदती है, अभिव्यक्ति देती है।
विगत दो शताब्दी के चतुर्दिक वैज्ञानिक-प्रौद्योगिक विकास ने मनुष्य के सामने अनेक रहस्यों का अनावरण किया .. उसने प्रकृति के नए रूपों, नयी शक्तियों से परिचय कराया है। अंतरिक्ष से जुड़े तमाम रहस्यों से पर्दा उठने के बाद गल्पकारों और कथा-नवीसों को फैंटेसी के लिए जैसे एक नया आयाम मिल गया.. आज शायद सबसे अधिक विज्ञान कथाएं अन्तरिक्ष पर लिखी जा रही हैं-उनको एक नया नामकरण ही दे दिया गया है स्पेस ओपेरा..मगर आज की बेतहाशा प्रौद्योगिकी-प्रगति ने मानव अन्वेषण के कितने ही नए द्वार खोल दिए हैं..आज क्लोनिंग, स्टेम सेल, नैनोटेक्नोलोजी के साथ ही दीर्घजीविता ही नहीं अमरता की भी गुत्थी सुलझााने में वैज्ञानिक दिन रात लगे हुए हैं। इन अनुसंधानों का मनुष्य के जीवन या फिर पूरे मानव समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? क्लोनिंग जैसी तकनीक अगर ओबामा बिन लादेन जैसे आतंकवादी के हाथ लग गयी तो क्या वह खुद अपना ही क्लोन बनाना नहीं चाहेगा? कुछ कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित नहीं हो जायेगा जैसे पुराणोक्त महिषासुर के साथ देवी दुर्गा के युद्ध में उस दानव के एक एक रक्त बूँद से एक नया महिषासुर उत्पन्न हो रहा था?.. ऐसा अगर हो जाय तो कितनी मुसीबत आ खड़ी हो जायेगी-एक ही लादेन मानवता के लिए बड़ी समस्या था.. सैकड़ो लादेन ? यह एक भयावह कल्पना है.. मगर क्लोनिंग सरीखी प्रौद्योगिकी इसे दुर्भाग्य से साकार कर सकती है क्लोनिंग पर ऐसी विज्ञान कथायें प्रकाशित हो चुकी हैं जो हमें इस तकनीक के अनेक अँधेरे उजाले पहलुओं से वाकिफ कराती हैं।
विज्ञान कथाकार हमें वैज्ञानिक तकनीकों के नकारात्मक पहलुओं से आगाह भी करता है ताकि समय रहते हम ऐसी अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना कर सकें-ठीक वैसे ही जैसे पुराकथाओं में कोई न कोई देवी- देवता मानवता के त्राण के लिए आ प्रगट होता है! अब पहले वैज्ञानिक उपन्यास फ्रैन्केन्स्टीन को ही ले लें- इसका भयावह दानव सरीखा पात्र खुद अपने जन्मदाता डाॅ0 फ्रैन्केन्स्टीन की ही जान लेने पर तुल जाता है और उसका धरती के कोने-कोने तक पीछा करता चलता है और आखिर जन्मदाता होने के बावजूद डाॅ0 फ्रैन्केन्स्टीन को काल कवलित होना पड़ता है- एक दुखांत कथा है यह ..मगर ऐसी ही एक कथा हमारे पुराणों में भी है भस्मासुर की जो खुद अपने वरदानदाता शिव की जान लेने को उद्यत हो जाता है. शिव भागे भागे फिरते हैं मगर अंततः विष्णु उनकी रक्षा में आ जाते हैं- कहानी सुखान्त बन जाती है भारतीय पुराण कहानियां पश्चिम की ज्यादातर दुखान्त कहानियों की तुलना में सुखान्त है- कोई न कोई यहाँ मानवता के त्राण के लिए ऐन वक्त पर आ पहुंचता है- विज्ञान कथाकारों को भी अपनी कहानियाँ में समस्याओं से निजात की संभावनाओं को उकेरना चाहिए.. यह एक विचारणीय पहलू है.
आज हमारे देश के सामने अनेक चुनौतियां हैं। गरीबी उन्मूलन, बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों की पूर्ति सब के लिए स्वास्थ्य और साथ में प्रदूषण, ग्लोबल वर्मिंग जैसी विश्व व्याप्त समस्याएं और कितनी ही त्रासदियाँ। नागासाकी हिरोशिमा का दंश हम आज भी झेल रहे हैं- विमान जो यात्रियों को ढ़ोने के लिए बनाए गए थे अचानक बम वर्षा करने लगे.. आम लोगों को इसका तनिक पूर्वाभास न था मगर विज्ञान कथाकारों ने 1945 के पहले ही ऐसी दहशतनाक संभावनाओं की ओर इशारा कर दिया था.. और नागासाकी हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद पहली बार लोगों ने विज्ञान कथाकारों को गम्भीरता से लेना शुरू किया.. विज्ञान कथाकार भविष्य की टोह लेने की प्रज्ञा लिए होता है वह मौजूदा प्रविधियों जुगतों पर नजर गड़ाते हुए भविष्य में इनके उपयोग दुरपयोग की संभावनाओं की आहट लेता है- और अपनी कहानियों में उनका जिक्र करता है- उसकी भविष्यवाणियां सच हो उठती हैं मगर कुछ गलत भी हो सकती हैं- वह भविष्यवक्ता थोड़े ही है, वह तो एक वैज्ञानिक पद्धति, सोच के जरिये भविष्य में झांकता है और दूर की कौड़ी ला देता है, मगर वह कोई नजूमी नहीं है।
भारत में वैसे तो विज्ञान कथायें विगत उन्नीसवी सदी से लिखी जानी शुरू हुईं जैसे अब तक की ज्ञात पहली हिन्दी विज्ञान कथा ’आश्चर्य वृत्तांत’ अम्बिका दत्त व्यास ने लिखी थी जिसे उन्होंने तत्कालीन पत्रिका पीयूष प्रवाह में धारावाहिक रूप से 1884 में लिखना शुरू किया था आगे मशहूर साहित्यिक पत्रिका ’सरस्वती’ ने वर्ष 1900 से विज्ञान कहानियों को कभी कभार प्रकाशित करना आरम्भ किया, मगर इन कहानियों पर पश्चिमी विज्ञान कथाकारों का बहुत प्रभाव था.. एक समय था जब एच-जी-वेल्स, जूल्स वर्न, एडगर एलन पो जैसे साहित्यकारों ने अपने वैज्ञानिक साहित्य द्वारा न केवल योरप और अमेरिका बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर अपनी लेखनी का अमिट प्रभाव छोड़ा था। अनेक किशोरों ने उन कहानियों को पढ़कर वैज्ञानिक बनने का निश्चय किया और आगे चलकर देश की तरक्की में भागीदार बने। आज भी विज्ञान कथाओं पर आधारित जुरासिक पार्क, द मैट्रिक्स और स्टार वार्स जैसी फिल्मों का नाम तो बच्चे बच्चे की जबान पर है।
भारत में विज्ञान कथाओं के प्रति साहित्यकारों की जैसे एक अरूचि सी बनी रही है यद्यपि आचार्य चतुरसेन शास्त्री, डाॅ0 सम्पूर्णानन्द, राहुल सांकृत्यायन जैसे जानेमाने साहित्यकारों ने मौलिक विज्ञान कथाएं, उपन्यास लिखकर इस ओर साहित्यकारों का ध्यान आकर्षित किया था.. मगर आज भी यह विधा भारत में उपेक्षित सी ही है किन्तु अब विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की बढ़ती प्रगति से ऐसी कहानियों के लिए अनुकूल माहौल बन रहा है.. हमारे नजरिये, हमारी सोच पर विज्ञान जैसे जैसे प्रभाव डालता जाएगा विज्ञान कथा साहित्य में हमारी स्वयमेव रूचि होती जायेगी.. आज स्कूलों कालेजों की एक भरी पूरी पीढ़ी ऐसे ही वैज्ञानिक परिवेश में संस्कारित हो रही है- उन्हे एक ’नए तरीके का साहित्य भायेगा, विज्ञान कथायें ही उस नए तरीके के साहित्य की भरपाई करेंगी। दरअसल विज्ञान कथा आधुनिक दौर का वह वैश्विक साहित्य है जो कल्पनाओं के नये दरवाजे खोलती है। विज्ञान कथाएं वैज्ञानिक प्रगति के सामाजिक प्रभावों का अवलोकन करती हैं और साथ ही इसके जरिये वैज्ञानिक प्रगति की सही दशा और दिशा का भी निर्धारण करती हैं ताकि विज्ञान मानव जाति के कल्याण के लिए हो, न कि विनाश के लिए। विज्ञान कथाएं विज्ञान को साहित्य और आम जनमानस से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम भी हैं। आज अमेरिका साइंस और टेक्नालाजी के मामले में सबसे आगे है तो इसके पीछे विज्ञान कथाओं एवं सम्बन्धित साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत में वैज्ञानिक जागरूकता उत्पन्न करने में विज्ञान कथाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। इस विधा द्वारा न केवल आम जन मानस में वैज्ञानिक जागरूकता पैदा की जा सकती है बल्कि आम तौर पर शुष्क माने जाने वाले विज्ञान को मनोरंजन के एक शक्तिशाली साधन है। के रूप में विकसित करते हुए सम्पूर्ण देश में विज्ञानमय वातावरण बनाया जा सकता है। आज विकसित देशों के निवासी विज्ञान कथाओं व फिल्मों को अपनी पसंद में पहली प्राथमिकता देते हैं और इसीलिए विज्ञान उनके लिए शुष्क विषय न होकर मनोरंजन का साधन नतीजन वे विज्ञान के क्षेत्र में दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहे हैं। एक सवाल ये उठता है कि विज्ञान कथाएं किस प्रकार की हों। दरअसल किसी भी विज्ञान कथा की पहली शर्त है, उसका रोचक होना। अगर इसमें भी विज्ञान का शुष्क वर्णन कर दिया जाये तो कोेर्स की किताबों और विज्ञान कथा में कोई फर्क नहीं रह जायेगा, किसी भी कथा को रोचक बनाने के लिए उसमें कुछ फ्लेवर्स मिलाये जाते हैं। जैसे जरूरत के मुताबिक नौ रसों (श्रृंगार, वीर, हास्य, रौद्र......इत्यादि) का उपयुक्त मिश्रण, कहानी का कसा हुआ उतार चढ़ाव, पात्रों व माहौल का चुनाव आदि। विज्ञान कथा उन सभी रूपों में लिखी जा सकती है जो लोगों के बीच लोकप्रिय हो, जैसे कि लघु कथा, उपन्यास, नाटक, कामिक्स, झांकी, टी0वी0 धारावाहिक स्क्रिप्ट, फिल्म, स्क्रिप्ट, कविता इत्यादि कोई भी विधा विज्ञान कथा का प्रतिनिधित्व कर सकती है। विज्ञान कथा सामाजिक हो सकती है, सस्पेंस हारर या जासूसी हो सकती है या फिर पूर्णतः कामेडी हो सकती है। जरूरत है बस उसमें वैज्ञानिक तथ्य खूबसूरती व रोचकता के साथ शामिल करने की।
विज्ञान कथा विधा देश में विज्ञान संचार के एक ऐसे ही माध्यम के रूप में विकसित होती दिखाई दे रही है जो अत्यन्त शक्तिशाली है और विज्ञान संचार को एक आन्दोलन के रूप में परिवर्तित कर सकने में सर्वथा समर्थ है। यह भारतीय विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा करेगी। यह भविष्य की वैज्ञानिक प्रगति की झलक भी दिखायेगी और विज्ञान के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का पूर्वावलोकन भी। बस जरूरत है इसे योजनाबद्ध ढंग से विकसित व प्रमोट करने और इसे अन्य विधाओं अर्थात, नाटक, सीरियल, फिल्म इत्यादि के साथ सम्बद्ध करने की। साथ ही साथ समाज में फैले हुए अंधविश्वास को दूर करने एवं वैधानिक नजरिये के विकास में सामाजिक कथाएँ काफी सहायक हो सकती है। आज जिस गति से हमारा देश वैज्ञानिक प्रगति कर रहा है और आम आदमी के जीवन में वैज्ञानिक यंत्रो/उपकरणों की आमद होती जा रही है, ऐसे में विज्ञान कथा की लोकप्रियता बढ़ना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। अगर हम गहराई से देखें तो कह सकते हैं कि बच्चो को अतार्किक एवं भ्रमपूर्ण चीजों से दूर रखने, उनके भीतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने तथा उनके मस्तिष्क के समग्र विकास के दृष्टिकोण से विज्ञान कथाएँ अत्यंत ही उपयोगी साबित होगीं.
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति (1750 से 1850) ने मनुष्य को सहसा ही मशीनों की ताकत का अहसास दिलाया, रेल पटरियों पर दैत्याकार भाप के इंजन वाली रेल दौड़ी तो लोगों में भय और विस्मय का संचार हुआ..स्विच दबाने मात्र से अँधरे को छूमंतर करने वाली बिजली ने विशाल मशीनों में भी प्राण फूंक दिया और उनके संचालन का जिम्मा खुद संभाल लिया। मनुष्य को शारीरिक श्रम से बच रहने और आरामदायक जीवन का विकल्प अब सामने था.. मगर तभी कुछ विचारवान लोगों के मन में शंकाएं भी उभरीं-कहीं ये मशीनें मनुष्य की अहमियत को खत्म तो नहीं कर देंगी? मतलब कहीं मनुष्य को मशीने विस्थापित तो नहीं कर देंगी ? उसे बिना काम धाम का निठल्ला तो नहीं बना देगीं ?.. और सबसे बढ़कर यह है कि कहीं मशीने खुद मसीहा तो नहीं बन उठेगीं ? कहीं वे स्वयंभू बन मनुष्य के अधिपत्य को ही तो चुनौती नहीं दे डालेंगी ? मनुष्य के यही आरम्भिक संशय जल्दी ही एक साहित्यिक अभिव्यत्ति का सूत्रपात करने वाले थे जिसे कहानी की एक नयी विधा के रूप में पहचाना जाना था, यह थी विज्ञान कथाओं (साईंस फिक्शन) की आहट.. यह उन्ही दिनों की बात है जब मेरी शेली जो जानेमाने कवि पर्सी बिसी शेली की पत्नी थीं ने अपना पहला उपन्यास लिखा था- फ्रैन्केंन्स्टीन (1818) और उसमें विज्ञान के प्रति ऐसी ही आशंकाएं मुखरित हुयी थीं, आज यह उपन्यास पहले आधुनिक विज्ञान कथा की पदवी से सुशोभित है। मशहूर अमेरिकी विज्ञान कथाकार आईजक आजिमोव (1920-1992) इसलिए ही लिखते हैं कि विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभावों के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया को कुरेदती है, अभिव्यक्ति देती है।
विगत दो शताब्दी के चतुर्दिक वैज्ञानिक-प्रौद्योगिक विकास ने मनुष्य के सामने अनेक रहस्यों का अनावरण किया .. उसने प्रकृति के नए रूपों, नयी शक्तियों से परिचय कराया है। अंतरिक्ष से जुड़े तमाम रहस्यों से पर्दा उठने के बाद गल्पकारों और कथा-नवीसों को फैंटेसी के लिए जैसे एक नया आयाम मिल गया.. आज शायद सबसे अधिक विज्ञान कथाएं अन्तरिक्ष पर लिखी जा रही हैं-उनको एक नया नामकरण ही दे दिया गया है स्पेस ओपेरा..मगर आज की बेतहाशा प्रौद्योगिकी-प्रगति ने मानव अन्वेषण के कितने ही नए द्वार खोल दिए हैं..आज क्लोनिंग, स्टेम सेल, नैनोटेक्नोलोजी के साथ ही दीर्घजीविता ही नहीं अमरता की भी गुत्थी सुलझााने में वैज्ञानिक दिन रात लगे हुए हैं। इन अनुसंधानों का मनुष्य के जीवन या फिर पूरे मानव समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? क्लोनिंग जैसी तकनीक अगर ओबामा बिन लादेन जैसे आतंकवादी के हाथ लग गयी तो क्या वह खुद अपना ही क्लोन बनाना नहीं चाहेगा? कुछ कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित नहीं हो जायेगा जैसे पुराणोक्त महिषासुर के साथ देवी दुर्गा के युद्ध में उस दानव के एक एक रक्त बूँद से एक नया महिषासुर उत्पन्न हो रहा था?.. ऐसा अगर हो जाय तो कितनी मुसीबत आ खड़ी हो जायेगी-एक ही लादेन मानवता के लिए बड़ी समस्या था.. सैकड़ो लादेन ? यह एक भयावह कल्पना है.. मगर क्लोनिंग सरीखी प्रौद्योगिकी इसे दुर्भाग्य से साकार कर सकती है क्लोनिंग पर ऐसी विज्ञान कथायें प्रकाशित हो चुकी हैं जो हमें इस तकनीक के अनेक अँधेरे उजाले पहलुओं से वाकिफ कराती हैं।
विज्ञान कथाकार हमें वैज्ञानिक तकनीकों के नकारात्मक पहलुओं से आगाह भी करता है ताकि समय रहते हम ऐसी अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना कर सकें-ठीक वैसे ही जैसे पुराकथाओं में कोई न कोई देवी- देवता मानवता के त्राण के लिए आ प्रगट होता है! अब पहले वैज्ञानिक उपन्यास फ्रैन्केन्स्टीन को ही ले लें- इसका भयावह दानव सरीखा पात्र खुद अपने जन्मदाता डाॅ0 फ्रैन्केन्स्टीन की ही जान लेने पर तुल जाता है और उसका धरती के कोने-कोने तक पीछा करता चलता है और आखिर जन्मदाता होने के बावजूद डाॅ0 फ्रैन्केन्स्टीन को काल कवलित होना पड़ता है- एक दुखांत कथा है यह ..मगर ऐसी ही एक कथा हमारे पुराणों में भी है भस्मासुर की जो खुद अपने वरदानदाता शिव की जान लेने को उद्यत हो जाता है. शिव भागे भागे फिरते हैं मगर अंततः विष्णु उनकी रक्षा में आ जाते हैं- कहानी सुखान्त बन जाती है भारतीय पुराण कहानियां पश्चिम की ज्यादातर दुखान्त कहानियों की तुलना में सुखान्त है- कोई न कोई यहाँ मानवता के त्राण के लिए ऐन वक्त पर आ पहुंचता है- विज्ञान कथाकारों को भी अपनी कहानियाँ में समस्याओं से निजात की संभावनाओं को उकेरना चाहिए.. यह एक विचारणीय पहलू है.
आज हमारे देश के सामने अनेक चुनौतियां हैं। गरीबी उन्मूलन, बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों की पूर्ति सब के लिए स्वास्थ्य और साथ में प्रदूषण, ग्लोबल वर्मिंग जैसी विश्व व्याप्त समस्याएं और कितनी ही त्रासदियाँ। नागासाकी हिरोशिमा का दंश हम आज भी झेल रहे हैं- विमान जो यात्रियों को ढ़ोने के लिए बनाए गए थे अचानक बम वर्षा करने लगे.. आम लोगों को इसका तनिक पूर्वाभास न था मगर विज्ञान कथाकारों ने 1945 के पहले ही ऐसी दहशतनाक संभावनाओं की ओर इशारा कर दिया था.. और नागासाकी हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद पहली बार लोगों ने विज्ञान कथाकारों को गम्भीरता से लेना शुरू किया.. विज्ञान कथाकार भविष्य की टोह लेने की प्रज्ञा लिए होता है वह मौजूदा प्रविधियों जुगतों पर नजर गड़ाते हुए भविष्य में इनके उपयोग दुरपयोग की संभावनाओं की आहट लेता है- और अपनी कहानियों में उनका जिक्र करता है- उसकी भविष्यवाणियां सच हो उठती हैं मगर कुछ गलत भी हो सकती हैं- वह भविष्यवक्ता थोड़े ही है, वह तो एक वैज्ञानिक पद्धति, सोच के जरिये भविष्य में झांकता है और दूर की कौड़ी ला देता है, मगर वह कोई नजूमी नहीं है।
भारत में वैसे तो विज्ञान कथायें विगत उन्नीसवी सदी से लिखी जानी शुरू हुईं जैसे अब तक की ज्ञात पहली हिन्दी विज्ञान कथा ’आश्चर्य वृत्तांत’ अम्बिका दत्त व्यास ने लिखी थी जिसे उन्होंने तत्कालीन पत्रिका पीयूष प्रवाह में धारावाहिक रूप से 1884 में लिखना शुरू किया था आगे मशहूर साहित्यिक पत्रिका ’सरस्वती’ ने वर्ष 1900 से विज्ञान कहानियों को कभी कभार प्रकाशित करना आरम्भ किया, मगर इन कहानियों पर पश्चिमी विज्ञान कथाकारों का बहुत प्रभाव था.. एक समय था जब एच-जी-वेल्स, जूल्स वर्न, एडगर एलन पो जैसे साहित्यकारों ने अपने वैज्ञानिक साहित्य द्वारा न केवल योरप और अमेरिका बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर अपनी लेखनी का अमिट प्रभाव छोड़ा था। अनेक किशोरों ने उन कहानियों को पढ़कर वैज्ञानिक बनने का निश्चय किया और आगे चलकर देश की तरक्की में भागीदार बने। आज भी विज्ञान कथाओं पर आधारित जुरासिक पार्क, द मैट्रिक्स और स्टार वार्स जैसी फिल्मों का नाम तो बच्चे बच्चे की जबान पर है।
भारत में विज्ञान कथाओं के प्रति साहित्यकारों की जैसे एक अरूचि सी बनी रही है यद्यपि आचार्य चतुरसेन शास्त्री, डाॅ0 सम्पूर्णानन्द, राहुल सांकृत्यायन जैसे जानेमाने साहित्यकारों ने मौलिक विज्ञान कथाएं, उपन्यास लिखकर इस ओर साहित्यकारों का ध्यान आकर्षित किया था.. मगर आज भी यह विधा भारत में उपेक्षित सी ही है किन्तु अब विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की बढ़ती प्रगति से ऐसी कहानियों के लिए अनुकूल माहौल बन रहा है.. हमारे नजरिये, हमारी सोच पर विज्ञान जैसे जैसे प्रभाव डालता जाएगा विज्ञान कथा साहित्य में हमारी स्वयमेव रूचि होती जायेगी.. आज स्कूलों कालेजों की एक भरी पूरी पीढ़ी ऐसे ही वैज्ञानिक परिवेश में संस्कारित हो रही है- उन्हे एक ’नए तरीके का साहित्य भायेगा, विज्ञान कथायें ही उस नए तरीके के साहित्य की भरपाई करेंगी। दरअसल विज्ञान कथा आधुनिक दौर का वह वैश्विक साहित्य है जो कल्पनाओं के नये दरवाजे खोलती है। विज्ञान कथाएं वैज्ञानिक प्रगति के सामाजिक प्रभावों का अवलोकन करती हैं और साथ ही इसके जरिये वैज्ञानिक प्रगति की सही दशा और दिशा का भी निर्धारण करती हैं ताकि विज्ञान मानव जाति के कल्याण के लिए हो, न कि विनाश के लिए। विज्ञान कथाएं विज्ञान को साहित्य और आम जनमानस से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम भी हैं। आज अमेरिका साइंस और टेक्नालाजी के मामले में सबसे आगे है तो इसके पीछे विज्ञान कथाओं एवं सम्बन्धित साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत में वैज्ञानिक जागरूकता उत्पन्न करने में विज्ञान कथाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। इस विधा द्वारा न केवल आम जन मानस में वैज्ञानिक जागरूकता पैदा की जा सकती है बल्कि आम तौर पर शुष्क माने जाने वाले विज्ञान को मनोरंजन के एक शक्तिशाली साधन है। के रूप में विकसित करते हुए सम्पूर्ण देश में विज्ञानमय वातावरण बनाया जा सकता है। आज विकसित देशों के निवासी विज्ञान कथाओं व फिल्मों को अपनी पसंद में पहली प्राथमिकता देते हैं और इसीलिए विज्ञान उनके लिए शुष्क विषय न होकर मनोरंजन का साधन नतीजन वे विज्ञान के क्षेत्र में दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहे हैं। एक सवाल ये उठता है कि विज्ञान कथाएं किस प्रकार की हों। दरअसल किसी भी विज्ञान कथा की पहली शर्त है, उसका रोचक होना। अगर इसमें भी विज्ञान का शुष्क वर्णन कर दिया जाये तो कोेर्स की किताबों और विज्ञान कथा में कोई फर्क नहीं रह जायेगा, किसी भी कथा को रोचक बनाने के लिए उसमें कुछ फ्लेवर्स मिलाये जाते हैं। जैसे जरूरत के मुताबिक नौ रसों (श्रृंगार, वीर, हास्य, रौद्र......इत्यादि) का उपयुक्त मिश्रण, कहानी का कसा हुआ उतार चढ़ाव, पात्रों व माहौल का चुनाव आदि। विज्ञान कथा उन सभी रूपों में लिखी जा सकती है जो लोगों के बीच लोकप्रिय हो, जैसे कि लघु कथा, उपन्यास, नाटक, कामिक्स, झांकी, टी0वी0 धारावाहिक स्क्रिप्ट, फिल्म, स्क्रिप्ट, कविता इत्यादि कोई भी विधा विज्ञान कथा का प्रतिनिधित्व कर सकती है। विज्ञान कथा सामाजिक हो सकती है, सस्पेंस हारर या जासूसी हो सकती है या फिर पूर्णतः कामेडी हो सकती है। जरूरत है बस उसमें वैज्ञानिक तथ्य खूबसूरती व रोचकता के साथ शामिल करने की।
विज्ञान कथा विधा देश में विज्ञान संचार के एक ऐसे ही माध्यम के रूप में विकसित होती दिखाई दे रही है जो अत्यन्त शक्तिशाली है और विज्ञान संचार को एक आन्दोलन के रूप में परिवर्तित कर सकने में सर्वथा समर्थ है। यह भारतीय विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा करेगी। यह भविष्य की वैज्ञानिक प्रगति की झलक भी दिखायेगी और विज्ञान के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का पूर्वावलोकन भी। बस जरूरत है इसे योजनाबद्ध ढंग से विकसित व प्रमोट करने और इसे अन्य विधाओं अर्थात, नाटक, सीरियल, फिल्म इत्यादि के साथ सम्बद्ध करने की। साथ ही साथ समाज में फैले हुए अंधविश्वास को दूर करने एवं वैधानिक नजरिये के विकास में सामाजिक कथाएँ काफी सहायक हो सकती है। आज जिस गति से हमारा देश वैज्ञानिक प्रगति कर रहा है और आम आदमी के जीवन में वैज्ञानिक यंत्रो/उपकरणों की आमद होती जा रही है, ऐसे में विज्ञान कथा की लोकप्रियता बढ़ना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। अगर हम गहराई से देखें तो कह सकते हैं कि बच्चो को अतार्किक एवं भ्रमपूर्ण चीजों से दूर रखने, उनके भीतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने तथा उनके मस्तिष्क के समग्र विकास के दृष्टिकोण से विज्ञान कथाएँ अत्यंत ही उपयोगी साबित होगीं.
नोट : यह आलेख नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित मेरी पुस्तक ' कुम्भ के मेले में मंगलवासी' की भूमिका से उद्धृत है! अतः बिना मेरे या नेशनल बुक ट्रस्ट की अनुमति के पूर्णतः या अंशतः कहीं प्रकाशित करना कापीराईट नियमों का उल्लंघन हो सकता है!
Ek Achcha Wiwechan!
ReplyDeleteशायद कल्पना और कथाप्रियता ने हमारे यहाँ इस तरह के लेखन को काफी प्रोत्साहित किया है। मगर समस्या तब होती है जब लोग इसे इतिहास मान बैठते हैं।
ReplyDeleteaaj bhi india me science ko itna nhi mana jata jitna ki devi-devtao ko mana jata hai.......aj bhi log andhvishvaas ki bhakti me dube hue hain...tbi to apna India abi bhi piche hai....
ReplyDeleteSir Can I take the references from your article for my research paper ?
ReplyDeletePlease do so but with proper acknowledgement or reference!
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