एक बार फिर से मैंने मोहभंग को यूनिकोड मे बदलने का प्रयास किया है ,क्योंकि कुछ गलतियाँ रह गयी थीं .अब केवल चंद्रबिंदु की समस्या है बाक़ी ठीक हो गया लगता है ,अंतर्जाल पर कुछ लंबा पढना एक बोझिल काम है भले ही वह 'शार्ट स्टोरी ' ही क्यों ना हो.बहरहाल मोहभंग यूनिकोड मे प्रस्तुत है -
मोहभंग
भारत-चान्द्र एअर बस सेवा की उस उड़ान में मून टाइम्स का वेब पत्रकार निपुण भी था। ``आप चन्द्रलोक पहुच चुके हैं और जल्दी ही प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार के एपार्टमेन्ट तक पहच जायेंगे´´ एयर बस का प्रसारण मानीटर जो ठीक निपुण के सामने वाली सीट के पीछे लगा था, पल-पल की जानकारिया दे रहा था। भारतीय युवा पत्रकार निपुण जाने-माने अन्तरिक्ष तकनीकी विद प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार पर एक व्यक्ति चित्र बनाने की मुहिम पर था और विजियोफोन पर लगातार बड़बड़ाये जा रहा था। ``मै जानता हू कि दूसरे सह यात्रियों को भी उनके गन्तव्यों की जानकारी इसी भाति मिल रही होगी, मेरा उनमें से किसी से परिचय नहीं हैं, वे हैं भी तो बस गिनती के , न तो उनमें से ही किसी ने मुझसे परिचय करने की पहल दिखाई है और न ही मेरे मन में कोई ऐसी ललक है कि मैं सहयात्रियों के बारे में जानू¡ ... .. बस कुछ सेकेण्ड्स में ही सब अपने अपने गन्तव्य पर होंगे ... ..फिर किसी से जान पहचान का कोई मतलब भी नहीं है, वैसे अन्तर्राष्ट्रीय अन्तरिक्ष स्टेशन 2047 से उड़ते वक्त और चन्द्रमा तक आ पहुचने के कुछ घण्टों के दौरान भी हमारे बीच अपरिचय का फासला बना ही रहा है ... ... ... हम सभी अब ऐसे ही हो गये हैं न किसी से किसी का कोई वास्ता रह गया है और न ही कोई मतलब, परले दर्जे के आत्मकेfन्द्रत लोग हो गये हैं हम सभी ... .´´ विजियोफोन निपुण के सामने वाली सीट के पृष्ठ भाग में एअर बस के दिशा और स्थान सूचक मानीटर के ठीक नीचे लगा था, जिसे सुविधानुसार आगे पीछे किया जा सकता था- निपुण ने उसे अपने मुह के समीप खींच लिया था। वीजियोफोन पर उसकी बड़बड़ाहट का एक एक शब्द और उसके चेहरे की भाव भंगिमा धरती पर `मून टाइम्स´ तक तत्क्षण रिले हो रही थी। प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार उन चन्द नामी गिरामी तकनीकी विदों में थे जिन्हें धरती के अपने बहुत सफल कैरियर के बाद चन्द्रमा पर भी एक अच्छी खासी सैलरी के एवज में बुलाया गया था ... ... धरती से चन्द्रमा पर पहुचे लोगों की संख्या अब काफी हो गयी थी ... ... तकरीबन दस हजार और करीब पैतींस स्क्वायर मीटर का पूरा चन्द्र क्षेत्र जो अपोलो 16 के अवतरण स्थल के इर्दगिर्द था, धरतीवासियों के लिए एक विशाल वृत्ताकार कृत्रिम पर्यावास में बदला जा चुका था, जिसका बाहरी चान्द्र वातावरण से अब कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रह गया था- एक बहुत ही मजबूत नये मिश्रित धातु आर0एस0 डब्ल्यू0एम0 (रिइन्फोस्र्ड स्पाइडर वेब मैटेरियल) के `सेन्ट्रल पिलर´ जिसका अकेले ही व्यास दो कि0मी0 का रहा होगा पर धरतीवासियों का यह पर्यावास टिका हुआ था ... .. टिका का क्या था अपनी धुरी पर घूम रहा था, अनवरत लगातार ... ... ताकि `पर्यावासियों´ की सुविधा के लिए आवश्यक गुरुत्व उत्पन्न हो सके। धरती के वेब समाचार पत्र `मून टाइम्स´ के पत्रकार निपुण की एयर बस इसी घुमन्तू पर्यावास के दक्षिणी बुर्ज के एक निश्चित प्रवेश द्वार से जुड़ने वाली थी ... ... बस कुछ सेकेण्ड्स का फासला शेष था... ... वेब पत्रकारों को प्राय: ऐसे एसाइनमेन्ट मिलते रहते थे और प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार भी कोई ऐरे गैरे व्यक्ति भी नहीं थे, चन्द्र पर्यावास की डिजाइनिंग, स्थापना और आटोमेशन के सारे ताम-झाम को उन्होंने ही तो अंजाम दिया था, या यू¡ कहें कि उनका इस परियोजना में एक बड़ा रोल था। निपुण को उनका इण्टरव्यू लेकर धरती पर भेज देना था। सजीव प्रसारण की अनुमति खुद प्रोफेसर द्वारा न दिये जाने से रिकाडेड इण्टरव्यू ही `मून टाइम्स´ को भेजा जाना था और वह भी प्रोफेसर सुरेन्द्र द्वारा देख लेने और एडिट करने के बाद ... ... इक्कीसवी सदी के उत्तरार्ध में भी वैज्ञानिकों को मीडिया वालों से भय बना रहता था कि न जाने वे क्या प्रकाशित-प्रसारित कर दें और एक नया विवाद शुरू हो जाय ... ...
``चन्द्र पर्यावास के दक्षिणी छोर के ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम द्वार पर आपका स्वागत है, हमने चन्द्र पर्यावास से सुरक्षित लिंक कर लिया है, कृपया ग्रीन सिग्नल की प्रतीक्षा कीजिए और फिर अपने फ्लोटिंग केबिन में सवार होकर गन्तव्य तक पहुचिये, कृपया अपने क्रम से निकास द्वार पर पहुचे, आपका चन्द्र प्रवास शुभ हो, इंडियन चान्द्र एअर बस सेवा चुनने के लिए आपको हादिक धन्यवाद! कृपया भविष्य में भी सेवा का अवसर प्रदान करें... ...´´ एअर बस के प्रसारण के अन्तिम शब्दों के साथ ही यात्रीगण ने उठने सा उपक्रम किया, निपुण का नम्बर पा¡चवा था और कुछ पलों के बाद ही वह खुद को एक विशेष तरह के केबिन में सुरक्षित पा रहा था, कुछ कुछ वैसा ही था जैसा कि धरती के `रोप वे´ केबिन होते हैं, फ़र्क बस इतना था कि यह विशेष प्रकार का केबिन बिना किसी सहारे के ही वातावरण में तैर सा रहा था- यह एक खास किस्म का `फ्लोटिंग केबिन´ था, स्वतो चालन का एक बेहतरीन नमूना! चान्द्र-पर्यावास का कृत्रिम वातावरण उसके लिए इतना प्रतिरोध उत्पन्न कर रहा था कि वह एक निश्चित गति से आगे बढ़ रहा था, मानों तैर सा रहा हो। यहा भी सामने एक स्क्रीन और दुतरफा संचार की व्यवस्था थी, वीजियो फोन जैसी ही, ``प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार आपकी प्रतीक्षा में हैं, मैं उनकी रिसेप्शनिस्ट हू¡ मारिया ग्रेवाल ... ... कृपया फ्लोट केबिन के स्थिर होते ही, अपने ठीक बायीं ओर के पैसेज जो अब बस खुलने वाला है से प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार के एपार्टमेन्ट `सेलेfस्टयल राण्डिवू´ में फ्लोट कर जायें। आपका स्वागत है... ... मिस्टर निपुण´´ स्वागत के औपचारिक और पेशेवराना अन्दाज में कहे गये ये शब्द निपुण के कर्ण पटलों को स्पfन्दत कर ही रहे थे कि केबिन का द्वार खुल गया और सीधे प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार के नेम प्लेट वाले बन्द दरवाजे से जुड़ गया जो धीरे-धीरे खुल रहा था... ... ``आइये मिस्टर निपुण ... ...प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार बस कुछ ही पलों में आपसे मिलेंगे ... ... ,, फिर मारिया ग्रेवाल की आवाज गूज उठी। निपुण को अचानक धरती सरीखे गुरुत्व का सुखद अहसास हुआ।
``कृपया हिचकें नहीं, आगे बढ़ें और ड्राइंग कक्ष में बैठ जांय : परेशान न हों, मैं खुद यहा नहीं हू, मैं एक नियन्त्रण कक्ष से बोल रही हू¡... ... .. आपकी पूरी यात्रा को मैं मानीटर करती रही हू- यह सिस्टम भी प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार की ही देन है... .वैसे ये व्यवस्थायें तो अब धरती पर भी हैं... .. फिर वही मारिया की प्रोफेसनल आवाज गजी... ... निपुण के ड्राइंग रुम में बैठे, कुछ ही पल बीते थे कि सहसा सामने की दीवार में एक बड़ा गड्ढा सा बनता नज़र आया और उसमें से एक मानव आकृति साकार हो उठी... .. शायद यही प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार हैं, सोचा निपुण ने। उसने सम्मान में उठने का उपक्रम किया। `` बैठो, बैठो निपुण ... ..´´ अपनापन लिए हुए इन स्नेहिल शब्दों ने मानों निपुण को सम्मोहित सा कर दिया, वह यन्त्रवत् सा बैठ गया था ... ... इतने अपनेपन से सराबोर शब्दों को निपुण ने धरती पर भी अरसे से नहीं सुना था... ... भले ही वे औपचारिकता के कुछ शब्द थे लेकिन उनमें अपनत्व का जो अहसास था, मन्त्रमुग्ध करने वाला था ... ...
एक देदीप्यमान चेहरा, स्नेहिल आखे, कलाम स्टाईल किन्तु पूरी तरह से श्वेत केश, एक अनौपचारिक सी वेश भूषा ... .. तो क्या यही थे प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार, सोचा निपुण ने ... .... और उनके सम्मान में पुन: सायास उठ खड़ा हुआ। अगले ही पल प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार ने निपुण को गले लगा लिया, सामने की विचित्र आकार की कुर्सी पर बैठते हुए, निपुण को भी इशारे से बैठने का आग्रह किया ... .... निपुण अभी भी किंकर्तव्यविमूढ़ सा था, एक महान शfख्सयत से मिलने पर शायद ऐसा ही लगता हो, सोच रहा था वह ।
``निपुण बेटे, मेरे पास तुम्हारे लिए कुल पन्द्रह मिनट हैं, तुम्हारी प्रश्नावली मुझे कल ही मिल गयी थी, मुझे खुशी है मून टाइम्स मुझ पर एक प्रोग्राम कर रहा है, मुझे रोमांच सा हो उठता है, जब धरती वाले मुझे याद करते हैं, आखिर धरती पर मैंने जीवन के 70 वर्ष गुजारे हैं... .. इस एसाइनमेन्ट को मैं स्वीकार नहीं करता... ... अब तुम्ही सोचो, भला सत्तर वर्ष की उम्र में यहा चन्द्रमा पर आने की कोई धरती प्रेमी कैसे सोच सकता है... ... धरती पर यह समय तो धरम-करम का होता आया है, वानप्रस्थ का रहा है ... और मैं अपनी संस्कृति और श्रेष्ठ पारम्परिक मान्यताओं का प्रबल अनुयायी रहा हू¡- जननी जन्मभूमिश्च स्वगादपि गरीयसी ... ..´´ निपुण को लगा कि सहसा ही प्रोफेसर की आखे डबडबा आयी थीं।
``भला ऐसी भी क्या मजबूरी थी आपको´´ निपुण के होठों से अकस्मात ये शब्द फूट पड़े किन्तु उनमें कुछ पेशागत आग्रह भी था।
``लम्बी कहानी है निपुण, तुम्हारे लिए मैंने अपने बारे में सारी उचित जानकारी इस आfप्टक फाइबर कैप, आई मीन कैप्सूल में लोड कर दिया है, हा,
अनुरोध यह है कि इसके डाऊनलोड वर्जन को एडिट करने के बाद ही इसे प्रसारण के लिए जारी करना ... .. इसमें कुछ ऐसे विजुअल्स और फुटेज हैं,जो मेरे निजी जीवन से जुड़े हैं जैसे गुजरात के पालनपुर गाव के मेरे पैतृक निवास के दृश्य ... ... अमेरिका में मेरे सुरेन्द्र मैन्शन के दृश्य जो स्वतोचालन का एक नायाब नमूना था ... ... इन्हें देखने पर तुम्हे यह अन्दाजा हो जायेगा कि सत्तर वर्ष की उम्र में मुझे धरती, प्यारी धरती की आश्वस्ति भरी गोंद क्यों छोड़नी पड़ी और यहा के अति याfन्त्रक जीवन को क्यों चुनना पड़ा ... .. अब तो मैं सौ वर्ष पूरा करने जा रहा हू¡, जीवन संगिनी का साथ छूटे भी करीब 40 वर्ष हो चुके ... ... वहीं धरती पर ही जब मेरा षष्टिपूर्ति अभिनन्दन हो रहा था, वे चल बसी थीं ... .. अब तो बस उनकी यादें शेष हैं ... ... दोनों बेटे वहीं अमेरिका में ही हैं, उन्हें बूढ़े बाप से कोई लगाव नहीं है ... ... शायद कभी रहा भी नहीं था, यह अमेरिकी संस्कृति की देन थी... ... लेकिन नहीं, वही अपसंस्कृति तो मेरे गुजरात के पैतृक गाव तक भी पसर चुकी थी... ... निपुण, मैं उस समय धरती से विदा हुआ जब मानवीय संवेदनायें मिट सी रहीं थीं, लोग भौतिक सुखों की मरीचिका में पगलाये बौराये से जीवन यापन कर रहे थे... ... अपने जीवनकाल के महज चालीस पचास वर्षों में मनुष्य भौतिकता से इतना ओत-प्रोत हो जायेगा, मैंने कल्पना तक नहीं की थी, मैं भी कैसा मूर्ख था कि इतने बड़े सामाजिक परिवर्तन को भाप नहीं सका ... ... हमारे युग द्रष्टाओं ने तो इसका आभास पहले ही पा लिया था ... ... `स्वारथ लाई करहिं सब प्रीति´ ... .. गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कहा था। ... ... पर सचमुच क्या ऐसा ही होने वाला था... ... शायद अपने बेहद व्यस्त दिनचर्या के चलते मैं अहसास नहीं कर सका ... ... बेटों ने नाता तोड़ा ... .. बस कभी कभार वीकेण्ड पर उनकी हलो हाय सुनने को मिल जाती थी, वह भी वीजियो कैम पर। अब चू¡कि मेरे अमेरिकी आवास पर सब कुछ कृत्रिम बुfद्ध युक्त रोबोट के हवाले था, मेरा खान-पान, मेरे एप्वाइन्टमेन्ट्स, सभी कुछ... .. मुझे भी बिना बेटों के देखभाल के जीने की आदत सी पड़ गयी थी... ... मेरे अनुचर रोबोट मेरी भलीभाति देखभाल कर रहे थे।
प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार भावावेश में बोलते जा रहे थे, निपुण पूरी तन्मयता से उनके चेहरे पर नजरे गड़ाये स्वप्नवत सा सब कुछ सुनता जा रहा था, कोई गहरी टीस थी जो प्रोफेसर के आत्मकथ्य को विस्तारित कर रही थी ... ...`` पर एक बार जब मैं काफी बीमार पड़ गया ... .. बेटों ने मेरी सुधि तक नहीं ली, मेरे अनुचर रोबो ही मेरी पल प्रतिपल सेवा सुश्रुषा करते रहे... ... अर्धांगिनी तो साथ छोड़ चुकी थीं ... ... जीवन में इतना अकेलापन मैंने कभी अनुभव नहीं किया था- जीवन का अर्थ ही मेरे लिए बेमानी हो गया था, दुनिया मुझे आटोमैशन और साइबनेटिक्स का मसीहा मानती थी... .. पर मेरे जीवन में कोई रास रंग नहीं रह गया था ... ... कभी सोचता कि मेरे अपने बेटों, अपने खून के रिश्तों पर क्या भौतिकता ने इतना प्रभाव डाल दिया है कि उनकी सारी संवेदनायें सूख गयी हैं ... .. क्या तकनीकी प्रगति, तरह तरह की जुगतों ने मानव को इतना खोखला कर दिया है कि लाखों वर्ष के जैवीय इतिहास को महज तीन-चार सौ वर्षों के प्रौद्योगिक विकास ने परे ढ़केल दिया है... ... इससे तो भले मेरे खुद के बनाये और संचालित रोबोट थे, आटोमैशन पद्धति थी, जो मेरा पल पल ध्यान रख रही थी, यहा तक कि वे मेरे चेहरे पर पीड़ा के भावों को भी भापने लग गये थे और तुरन्त मेरे मन का कोई काम, संगीत आदि की पेशकश कर देते थे ..... ....मन हल्का हो उठता था ... .. अब मेरी सारी दिनचर्या ही नहीं रात्रिचर्या भी उन्हीं मशीनों के हाथ में थी, आखिर वे भी तो मेरी ही सर्जना के परिणाम थे, यही सोच कर सन्तोष कर लेता था... ...पर मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति, सगे सम्बन्धियों का सामीप्य तो एक अलग ही अनुभव है जिसकी कमी कभी-कभी मुझे बेहद सताती ... ... और तभी मैंने एक बड़ा निर्णय लिया´´... ... एक क्षण को प्रोफेसर रुके, हाथ में बधी एक डिवायस पर बस पाच मिनट शब्दों को धीरे से उच्चारित किया, इस बीच न जाने किस ओर से एक रोबोट अनुचर ने आकर तश्तरी में कुछ रंग बिरंगे टैबलेट रख दिये। ``ये कुछ ऊर्जा देने वाले पोषक आहार हैं, स्वादिष्ट भी हैं, चख कर देखो ... .. कहते हुए वे फिर अपनी व्यथा कथा के छूटे सूत्र के सहारे यादों में खो से गये।
``हा, मैंने फैसला किया कि मैं भारत में गुजरात के अपने गाव पालनपुर में जाकर शेष जीवन व्यतीत करु, हो सकता है मुझे वहा वह मानवीय सानिध्य, वह प्रेम मिल सके, जिसकी मुझे शिद्दत से चाह थी ... ... और फिर एक दिन अमेरिकी जीवन की सारी भौतिकता, सारे याfन्त्रक ताम-झाम को अलविदा कहकर मैं अपने मूल पैतृक निवास पालनपुर पहु¡च गया ... ... वहा¡ पह¡ुचकर मैं अभिभूत था, इतना स्नेह, इतना प्यार, इतना अपनापन ... .. आखिर यही थी भारतीय संस्कृति की वह विरासत जिसे पाने के लिए मैं तड़प रहा था ... ... ये मेरे ही परिजन थे, मेरे भाई भतीजे.. ... लेकिन अफसोस, यह सब भी अल्पकालिक था... ... मैं उनमें अपनत्व ढूढ़ रहा था और वे सब अमरीका से लाये मेरे सामानों-गैजेट्स की ताक झाक में थे ..... जिनका मेरे लिए कोई मूल्य नहीं था, किन्तु अपने साथ लाये कुछ सर्विलांस के उपकरणों ने मेरी आखे खोल दी .. ... वे सब धीरे-धीरे मेरे बैंक बैलेंस के टोह में रहते, मैं अपनी वसीयत किसको करुगा, किसको कितना हिस्सा दू¡गा, अपने अमेरिका वासी बेटों के नाम भी कुछ वसीयत करुगा या नहीं, आदि ... आदि ... तो वे सब मेरे धन सम्पदा के भूखे थे ... .. वहा भी पश्चिम की संस्कृति हावी हो रही थी या फिर हमारे श्रेष्ठ भारतीय जीवन मूल्य तिरोहित हो चले थे, मेरा तो जैसे मोह भंग हो उठा था... .. यह सब मेरे लिए बहुत पीड़ादायक था ... .. फिर से जीवन एक बार बोझ लगने लगा था...... और तभी मुझे चन्द्रमा के मानव पर्यावास परियोजना पर काम करने का ऑफर मिला और मैंने हांमी भर दी... ... लिहाजा अब यहा हू और मशीनी दुनिया¡ ने मुझे अब यहा इतना व्यस्त कर रखा है कि बीते दिनों की तमाम यादें अब बहुत धुधली सी हो गयी हैं, हा निपुण कभी-कभार तुम जैसे युवा लोगों से मिलकर मुझे अपने बेटे याद आ जाते हैं, जिन्होंने वर्षों बीत जाने पर भी मेरी सुधि नहीं ली, पर मैं जानता हू वे ठीक हैं, उनका अब परिवार भी है, बच्चे भी हैं पर वे भी शायद अपने पिता की राह पर हैं... ... शायद वे भी उनके साथ वहीं करें जैसा कि मेरे साथ घटा है ...... ``सहसा ही वे उठ खड़े हुए, पन्द्रह मिनट का एप्वाइन्टमेन्ट पूरा होने को आ रहा था ... ...
``ठीक है निपुण ... ... ये सारी बाते इस कैप्सूल में हैं जो तुम्हारे काम की लगें ले लेना, पर हा¡ मेरे कुछ उन निजी प्रसंगों को जो मैंने तुम्हें बताया है, छोड़ देना ... ... इन नकारात्मक बातों से भला मानवता का क्या भला होने वाला है? हमें अपनी नियति को स्वीकारना होगा ... .. अब वह काल आ पहुचा है जब मनुष्य मशीनों में तब्दील हो रहा है और मशीनें संवेदनात्मक हो चली हैं... यह एक नये ... सर्वथा नये युग का आगाज है... एक नई संस्कृति का उदय हो चला है ... .. फिर मिलेंगे निपुण, शायद शीघ्र ही धरती पर आऊ, अपने एक कार्य के सिलसिले में ... ... वैसे तो अब मेरा शेष जीवन यहीं बीतने वाला है, चन्द्रमा पर मशीनों और कृत्रिम बुfद्ध के अनुचरों के बीच ... मैं उन्हें प्रिय हू और वे भी अब मेरे प्रिय हो चले हैं... इन तरह - तरह के कृत्रिम बुfद्ध वाले अनुचरों और उनके कार्य विभाजनों की जानकारी भी तुम इसी कैप्सूल में पाओगे, हा, मून टाइम्स की वह प्रति मुझे भी भेजना न भूलना... ..जिसमें मेरी यह व्यथा कथा प्रकाशित हो´´
निपुण अपनी वापसी यात्रा में सोच रहा था कि प्रोफेसर सुरेन्द्र कुमार के जीवन के किस हिस्से को वह तरजीह दे, किसे डिलीट कर दे ... ... चलो जब कैप्सूल से डाऊन लोड होकर सारा मैटर सामने आयेगा, तब देखा जायेगा ... ...उसने विचारों से बोfझल हो रहे सिर को हल्के से एक झटका दिया और सामने मानीटर पर उभर रहे धरती के दृश्यों को निहारने में मशगूल हो गया ... ... ..।
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समय बीतते बीतते, पुरानी यादें रह जाती हैं। भावनायें भी ज्यादा हावी होती हैं।
ReplyDeleteचिट्ठे पर छपी सामग्री की सज्जा में खास ध्यान रखें कि सामग्री "..." का प्रयोग एक सीमा तक ही करे. साथ ही साथ, पेराग्राफ में विभजित करना अत्यावश्यक है.
ReplyDeleteआज के लिये जरूरी बात कह दी. अब कहानी पढूंगा -- शास्त्री जे सी फिलिप
आज का विचार: जिस देश में नायको के लिये उपयुक्त आदर खलनायकों को दिया जाता है,
अंत में उस देश का राज एवं नियंत्रण भी खलनायक ही करेंगे !!
पैराग्राफ में विभाजित करना अति आवश्यक है.. बहुत मेहनत करनी पड़ी पढने में पर अंतत सफल हुआ.. पढ़ते पढ़ते विज्युलाईज भी किया तो मज़ा दुगुना हो गया.. दो कि मी लम्बे व्यास का खम्बा, फ्लोटिंग केबिन और कैप्सूल में इंटरव्यू ने प्रभावित किया.. लेकिन क्या मोहभंग होने पर ही चंद्रमा पर जाना चाहिए था? मोहपाश में बंधकर भी तो जाया जा सकता था..
ReplyDeleteकुल मिलाकर एक इंस्पायरिंग कहानी लगी..
विज्ञान, शिक्षा , अनुभव, धर्म की बातें...सबको आपने अच्छे से जोड़ा.
ReplyDeleteकुमार साहब की व्यथा को पूर्णतः समझ सकता हूँ. कल की कविता ओडियन के नायक से मैं आठ बरस पहले मिला था यहाँ. अब आप मेरी व्यथा समझ सकते हैं :)
हाँ कहानी से एक शिकायत भी.
चाँद तो प्रेम में डूबे लोगों के मन में हरदम विचरता रहता है. ऐसे में कुमार साहब को विधुर अवस्था में चाँद पर पहुंचा देने से उनका दर्द और बढ़ गया होगा :)
अच्छी लगी कहानी.