विज्ञान गल्प और अपराध कथाओं के जाने माने उर्दू लेखक इज़हार असर के विगत १५ अप्रैल २०११ को इंतकाल की खबर जब अखबारों के जरिये कहानी प्रेमियों को मिली तो वे स्तब्ध रह गए ...वैसे तो उन्होंने एक लम्बा जीवन जिया और ८२ वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए मगर अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा उनकी छवि तरोताजा ही रही . उन्होंने बेशुमार वैज्ञानिक कहानियां ,उपन्यास लिखे ,कत्थक के अच्छे जानकार रहे .वे लाहौर से भारत आये और यहीं बस गए ...एक उर्दू लेखक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की और अपराध ,विज्ञान गल्प उनके पसंदीदा विषय रहे .प्रोग्रेसिव राईटर्स असोसिएशन से वे जुड़े थे और २००६ में उन्हें मशहूर ग़ालिब अवार्ड से नवाजा गया था ...
इज़हार असर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में स्थाई रूप से रह रहे थे और जीवन के अंतिम पलों तक वे उपन्यासों के लेखन में जुटे रहे ..बताया जाता है कि वे लगभग हर हप्ते ही एक उपन्यास पूरा कर देते थे-इसका कारण यह था कि सरकार और सिस्टम की बेरुखी के चलते वे काफी समय से प्रकाशकों के कुचक्र में फंस कर 'डिमांड राईटिंग' कर रहे थे-मतलब माल दो और जैसा चाहे लिखवा लो -भारत में परिस्थितियों के चलते विद्वता का यह पतन चिंतित करता है...यह दुर्भाग्य ही है कि जीवन के उत्तरार्ध में उनसे समाज को वह साहित्य नहीं मिल सका जिसके लिए वे सर्वथा सक्षम थे....उनकी सारी प्रतिभा बस प्रकाशकों के मकडजाल में उलझ कर रह गयी थी और वे केवल लुगदी साहित्य (पल्प लिटरेचर ) के सृजन में मशगूल रहे ....
मगर वे पहले ऐसे नहीं थे ..जब बटवारे के बाद वे भारत आये तो दिल्ली के मशहूर उर्दू -रिसालों जैसे चिलमन का उन्होंने संपादन किया ...एक मशहूर पाकेट बुक्स सीरीज के लिए जासूसी उपन्यास श्रृखला नागिन उन्ही के दिमाग की उपज थी....उनके पिता स्कूल मास्टर थे मगर फिर भी उनकी औपचारिक शिक्षा दसवीं के आगे नहीं बढ़ पायी -हाँ विज्ञान में अपनी रूचि का श्रेय वे शिक्षकों को ही देते थे ...बड़े स्वाध्यायी थे..पश्चिम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति से खुद को पूरा वाकिफ रखते थे और कहानी के जरिये उसे अपने पाठकों तक पहुँचाने का जिम्मा उन्होंने लिया था ...उनका पहला वैज्ञानिक गल्प उपन्यास आधी जिन्दगी १९५५ में प्रकाशित हुआ.ब्लॉगर उन्मुक्त जी बताते हैं कि इस उपन्यास का रोबोट आजिमोव के रोबोटिक्स सिद्धांतों का अनुपालन करता है . उनकी अनेक वैज्ञानिक कहानियां लगभग उसी वक्त ला -शरीक में छपीं ...जहां तक जासूसी कहानियों का सवाल है वे इब्ने सफी बी ऐ के बराबर दीखते हैं जो उर्दू साहित्य का एक दूसरा चमकता सितारा था ...आर्थिक तंगी के चलते असर को समझौते करने पड़े और उन्होंने प्रोफ़ेसर दिवाकर और डॉ. रमन के छद्म नाम से दिल्ली के एक पाकेट बुक्स प्रकाशक के लिए विज्ञान गल्प -उपन्यास लिखे जो बहुत मशहूर हुए ...अपने कालेज के दिनों में हम अक्सर यही कयास लगाते रहते कि आखिर प्रोफ़ेसर दिवाकर और डॉ .रमन कौन हैं ...
उर्दू एकेडमी के अख्तर उल वासे मानते हैं कि प्रकाशकों के प्रलोभनों ने इस अजीम रचनाकार से उसकी मौलिकता छीन ली ...वे घटिया व्यावसायिक कुचक्र में ऐसे फंसे कि निकल नहीं सके ...उर्दू साप्ताहिक नयी दुनिया की सम्पादक वसीम राशिद द्वारा एक अख़बार को दिए बयान के मुताबिक़ उर्दू साहित्य के अनेक लेखकों की तरह वे भी गरीबी और गुरवत के शिकार बन गए और प्रकाशकों के छोटे मोटे प्रलोभनों के फेर में आ गए ...उर्दू अकादमी द्वारा उन्हें महज ५ हजार रूपये मिलते थे जो अब उनके परिवार का खर्चा चलाने के लिए मदद को आगे आयी है .उनकी माली हालत को देख अनेक संगठनों ने प्रयास तो किये मगर उनका कोई ठोस नतीजा न निकल सका -अपने देश में प्रतिभाओं के प्रति व्यवस्था की यह बेरुखी चिंतित करती है .
दक्षिण भारत के मशहूर नायक रजनीकांत के प्रमुख रोल के साथ बनी फिल्म एंधिरन (रोबोट ) को देख वे कह पड़े थे कि अरे यह तो उनकी ही लिखे उपन्यास मशीनों की बगावत (1953 ) की ही अनुकृति लगती है ....उनके एक मित्र ने जब इसके लिए दावा ठोकने की बात कही तो वे मुस्करा के टाल गए ..असर के जाने से भारत के विज्ञान उपन्यासकारों का एक और स्तम्भ ढह गया है ..उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ......