Tuesday, October 30, 2012

हालीवुड फ़िल्में: उड़ती मोटरें ,प्रशीतित ऊर्जा चालित अन्तरिक्ष यान ,बुद्धि चातुर्य युक्त मशीनें और रोबोट

उड़ती मोटरें ,प्रशीतित ऊर्जा चालित अन्तरिक्ष यान ,बुद्धि चातुर्य युक्त मशीनें और रोबोट ,चौतरफा विध्वंस हालीवुड फिल्मों के आम दृश्य हैं .दरअसल इन फिल्मों का मुख्य उद्येश्य दर्शकों का मनोरंजन है न कि भविष्य का एक सटीक पूर्वानुमान मगर यह आश्चर्यजनक है कि कुछ दृश्य कालान्तर में हकीकत में भी बदलते रहे हैं .हालाकिं कुछ प्रौद्योगिकियां पहले से ही वजूद में रही हैं जिन्हें हालीवुड फ़िल्में एक कल्पित विस्तार देती आयी हैं -इसलिए कई विज्ञान कथा विचारक यह मानते हैं कि हालीवुड भले ही भविष्य का पूर्वानुमान न करता हो यह आगत को तो प्रभावित जरुर करता है . बहुत से वैज्ञानिक या प्रौद्योगिकीविद इन फिल्मों से निश्चय ही भविष्य की प्रौद्योगिकी की प्रेरणा पाते रहे हैं . 
मशहूर हालीवुड फिल्म निर्माता कुब्रिक की २००१: ऐ स्पेस ओडिसी का कम्प्यूटर एच ऐ अल ९००० लोगों की आवाज पहचानने की क्षमता रखता है -उसकी अपनी विकसित कृत्रिम बुद्धि भी है .यह फिल्म १९६८ में आयी थी . तब तो कम्प्यूटर का माउस भी अपना आज का रूपाकार नहीं पा सका था -आवाज पहचानने की बात तो तब दूर की कौड़ी थी मगर आज कम्प्यूटर का आवाज पहचानना (वायस रिकग्निशन ) एक सचाई बन चला है .इसी तरह १९८२ में आयी फिल्म ब्लेड रनर में भी आवाज पहचानने के अद्भुत दृश्य थे -निश्चय ही इन फिल्मों ने इस अविश्वसनीय सी लगने वाली जुगत विकसित करने में प्रेरणादायक की भूमिका निभाई है .आज स्मार्ट फोन तक में यह जुगत इस्तेमाल में है . आयी बी एम कम्प्यूटर समूह स्पीच रिकग्निशन प्रौद्योगिकी को और भी व्यापक रूप देने में लगा है .
परकाया प्रवेश जैसी पुराण कल्पनाएँ हालीवुड फिल्मों की वर्चुअल रियलिटी संस्करण बन गयी हैं जहाँ मनुष्य का आभासी रूप कहीं भी प्रक्षेपित हो सकता है -अभेद्य दीवारों के भीतर सहज ही घुसपैठ कर दस्तावेजों की छान बीन कर सकता है -मायिनारिटी रिपोर्ट (2002) एक ऐसे ही हैरत अंगेज वर्चुअल रियलिटी का साक्षात्कार दर्शकों को कराता है. ऐसे दृश्यों को दिखलाने के लिए स्पीलबर्ग ने सम्बन्धित विषयों के कई विशेषज्ञों की मदद ली थी . कम्प्यूटर जनित एक आभासी संसार में वास्तविकता की अनुभूति के आरम्भिक उदाहरण हमारे सामने आने आरम्भ हो गए है -कई कम्प्यूटर गेम ऐसे ही बन रहे हैं जहाँ विमान ही नहीं अन्तरिक्ष यानों तक के उड़ान के वास्तविक रोमांच की अनुभूति हो सकती है . भविष्य में रोजमर्रा ज़िंदगी के ज्यादातर कारोबार में इस तकनीक का उपयोग (और दुरूपयोग भी ? ) बढ़ता जाएगा . मनुष्य के साईबोर्ग बनते जाने का यह खेल अब शुरू हो चुका है और विज्ञान कथाओं में इस विधा को साईबर पंक का नाम दिया जा चुका है -एक ऐसी आभासी दुनिया हमारा इंतज़ार कर रही है जहाँ हम अपनी पूरी इन्द्रियों के साथ अशरीरी वजूद में मौजूद होंगें -बिनु पग चलै सुनै बिनु काना की सूझ साकार होने की राह पर है . 
वैसे ज्यादातर हालीवुड फ़िल्में विध्वंस को अपनी थीम बनाती हैं . डे आफ्टर टुमारो(२००४) ,आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (२००१)  इस तरह की फिल्मों की अगुआई करती दिखती हैं -शायद ऐसी फिल्मों से मनुष्य के मन की विध्वंस को देखने की चाह का एक शांतिपूर्ण शमन होता है . डे आफ्टर टुमारो ग्लोबल वार्मिंग से उपजे जल प्लावन का हाहाकारी दृश्यांकन करती है -क्या भविष्य में ऐसा हो सकता है? -कौन जाने? २०१२ फिल्म भी एक ऐसे ही दहशतनाक मंजर को प्रस्तुत करती है . 
कौन चाहेगा कि ऐसे दृश्य कभी सकार हों मगर हालीवुड फ़िल्में इन फिल्मों के माध्यम से एक प्रभावी संदेश पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में तो दे ही रही हैं . कुछ और फिल्मों का जिक्र यहाँ लाजिमी है जैसे गटाक्का जो मनुष्य के डी एन ऐ श्रृंखला में परिवर्तन से मनुष्य में आकार प्रकार के बदलावों को कथावस्तु बनाती है तो द रोड बढ़ती जनसंख्या से होने वाली दुश्वारियों और धरती को नर्क बनते जाने की दशा -महादशा को फोकस करती है . रोबोट इसाक आसिमोव की कहानी पर आधारित है और मनुष्य और रोबोट के आपसी कार्य व्यवहारों पर केद्रित है . डिस्ट्रिक्ट ९ धरती पर ही समृद्ध और प्रवंचित लोगों के बीच के वर्ग संघर्ष को एलियेन लोगों के धरती पर आने पर हमारे उनसे संघर्ष के तरीकों के जरिये दिखाती है . चिल्ड्रेन आफ होम भी ऐसे ही वर्ग संघर्षों का पूर्वावलोकन कराती है - विज्ञान और प्रौद्योगिकी की लाख प्रगति के बाद भी क्या हम अपने आदिम संस्कारों से मुक्त हो पाए हैं ? आज भी क्या ये फ़िल्में हमें अपने भविष्य का आईना नहीं दिखा रही हैं ? -शायद यह एक चेतावनी है जिसे हमें समय रहते समझना और सुलझाना होगा -नहीं तो हालीवुड फिल्मों का वर्णित भविष्य कहीं सचमुच एक हकीकत ही न बन जाए ?

Tuesday, May 15, 2012

भारत में वैज्ञानिक मनोवृत्ति के प्रसार में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF) के योगदान का एक तुलनात्मक विवेचन



भारत में वैज्ञानिकमनोवृत्ति के प्रसार में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF ) के योगदान का एक तुलनात्मक विवेचन
अरविन्द मिश्र
सचिव, 
भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति
16, काटन मिल कालोनी, चैकाघाट,
वाराणसी-221002
drarvind3@gmail.com
सारांश
आम जनमानस में कथा-कहानियों के जरिये ज्ञान विज्ञान का सहज प्रसार एक पुरानी पद्धति रही है, खासकर बच्चों में कहानी के जरिये जानकारियों का सहज संचार सरलता से होता आया है। स्कूल की कक्षाओं में भी विषय को कहानी के जरिये रोचक तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है- जैसे- अगर मंगल ग्रह के बारे में स्कूली छात्रों को जानकारी देनी है तो आरम्भ में मंगल ग्रह से जुड़ी किसी रोचक विज्ञान कथा के वाचन से उनमें मंगल ग्रह के बारे में पर्याप्त अपेक्षित उत्सुकता उत्पन्न की जा सकती है.... कतिपय पश्चिमी देशों में विज्ञान की कक्षाओं में सांइस फिक्शन का ऐसा इस्तेमाल नवाचारी शिक्षण कार्यक्रमों में किया जा रहा है। मुद्रण माध्यमों में ठीक इसी भाँति विज्ञान कथायें वैज्ञानिक जानकारियों और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सम्भावित परिणामों से पाठकों को परिचित करा सकती हैं। 
किन्तु भारत में ऐसे छिट-पुट प्रयास हुए हैं, संगठित प्रयासों की रूपरेखा नहीं बनी है। उपरोक्त सन्दर्भ में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF) की इस परिप्रेक्ष्य में उपादेयता जाँचने के लिए प्रस्तुत अध्ययन किया गया. विधागत विज्ञान कथाएँ वे विज्ञान कथायें हैं जो वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं जबकि मुख्यधारा की विज्ञान कथायें जैसा कि स्वयं स्पष्ट है उन मुद्रण/प्रसार माध्यमों में प्रकाशित/प्रसारित होने वाली विज्ञान कथाएं हैं जिनका आम जन पर बड़ा प्रभाव है और वे अधिक लोकप्रिय हैं... विगत सौ वर्षों में भारत में विज्ञान कथा मुख्यतः मुख्य धारा तक ही सीमित रही है... जबकि विगत तीन दशकों से विधागत विज्ञान कथाओं की व्याप्ति बढ़ी है और इसमें कई विज्ञान की पत्रिकाओं मुख्यतः विज्ञान प्रगति (निस्केयर प्रकाशन) और विज्ञान (विज्ञान परिषद्, प्रयाग) का योगदान रहा है... भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति की आमुख पत्रिका ‘विज्ञान कथा’ तो मुख्यतः विधागत विज्ञान कथा के लिए ही जानी जाती है। आलोच्य अध्ययन में इन्हीं विधागत और मुख्यधारा की विज्ञान कथाओं के विगत सौ वर्षीय योगदान पर एक तुलनात्मक दृष्टि डाली गयी है और निष्पत्तियों के साथ विवेचन प्रस्तुत किया गया है। 

प्रस्तावना
विज्ञान कथाओं ने (साइंस फिक़्शन एवं फैन्टेसी समाहित) विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अद्यतन प्रगति के संचार के साथ ही मानव जीवन पर इनके सम्भावित प्रभावों का एक पूर्वाकलन प्रस्तुत करने में अतुलनीय योगदान दिया है। आज विज्ञान कथाओं को हम जिस रूप में पहचानते हैं उनमें इनका दो रूप विशेष रूप से मुखर हैं। (1) मुख्य धारा की विज्ञान कथायें तथा (2) विधागत विज्ञान कथायें। इन दोनों स्वरूपों की चर्चा के पहले आइये हम सन्दर्भगत कुछ तकनीकी/परिभाषिक शब्दावलियों से परिचित हो लें।


शब्दावली:
सबसे पहले विधा- विधा का अर्थ एक खास साहित्यिक सृजन कार्य के उस समूह से है जिसमें पहचान के समान लक्ष्मण पाये जाते हैं। जैसे-रहस्य कथाओं में अपराध, प्रेम कथाओं में रूमानियत और विज्ञान कथाओं में परिकल्पित/परिवर्धित प्रौद्योगिकी और सामाजिक व्यवस्था। ये सभी साहित्य की विभिन्न विधायें हैं। इसी तरह कई अन्य जानी पहचानी विधायें है- रहस्य, हास्य विनोद, इतिहास, सस्पेंस, हारर , थ्रिलर आदि। विज्ञान कथायें या तो विधागत पहचान बनाये रखने के लिए इस ‘लेबेल’ को दर्शित करके लिखी जाती है। यानी तब ‘विधागत विज्ञान कथा’ के रूप में सम्बोधित होती हैं या फिर मुख्य धारा के कथाकार बिना इस ‘लेबेल’ के ही पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान कथाओं को लिखते/प्रकाशित करते हैं जिन्हें सहज ही ‘मुख्यधारा की विज्ञान कथायें कहते हैं। ‘विधागत’ विज्ञान कथा सामान्यतः ऐसी विज्ञान कथाओं की ओर संकेत करती हैं जिनके साथ ऐसे ‘लेबल’ की अनिवार्यतः इंगिति हो या फिर इनका पाठक वर्ग बिना ऐसे ‘लेबेल’ के भी इन्हें विज्ञानकथा के रूप में सहजता से पहचान लें। (क्लूट एण्ड निकोल्स ,1995) जैसे, विज्ञान प्रगति या साइंस रिपोर्टर में विज्ञान कथायें विधागत विज्ञान कथाओं की श्रेणी में आयेगी।

मुख्य धारा का तात्पर्य किसी भी ऐसे साहित्य सृजन से है जिस पर किसी खास विधा या श्रेणी का ठप्पा न लगा हो। यह सामान्यतः यथार्थपरक साहित्य सभी पारम्परिक स्वरूपों-मुख्यतः गद्य साहित्य का परिचायक है। विधागत एवं मुख्य धारा के साहित्य के कई अन्य भेद हैं; यहाँ तक कि किसी पुस्तक की दुकान में भी भिन्न-भिन्न विधाओं के ‘बुक शेल्फ’ का प्रावधान होता है और सामान्य गद्य साहित्य जिनकी कोई विशिष्ट श्रेणी नहीं होती है, मुख्य धारा के साहित्य के रूप में पहचानी जाती हैं और उसके पाठक भी किसी विशेष विधा के प्रति समर्पित नहीं होते। कभी-कभार मुख्यधारा का तात्पर्य व्यावसायिक लेखन की श्रेणी से भी लगाया जाता है। अब जैसे बहुत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कृतियाँ को मुख्यधारा के अधीन रखने का प्रचलन है। पं0 जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ इसी अर्थ में मुख्यधारा की कृति है। अतः मुख्यधारा का साहित्य गैर विधागत साहित्य है, वह किसी खास पहचान/श्रेणी का मुहताज नहीं हैं .विधागत साहित्य की उपविधायें भी चिन्हित की जा सकती हैं जैसे- विज्ञान कथाओं में ‘हार्ड साइंस फिक़्शन’, साफ्ट साइंस फिक्शन (सोशल साइंस फिक्शन जिसे कल्पना कुलश्रेष्ठ ने ‘सोसाईफाई’ का नाम दिया) इसी तरह विज्ञान कथाओं की कई उपविधायें हैं- जासूसरी विज्ञान कथा, हास्य विनोद विज्ञान कथा जिसमें जीशान हैदर जै़दी का नाम प्रमुख है। इसी तरह साईबर पंक, स्पेस ओपेरा, स्टीम पंक आदि विज्ञान कथाओं की उप विधायें हैं। दरअसल किसी खास विधा या उपविधा के रचनाकार अपनी कृतियों को एक विशिष्ट पहचान देने के लिए जाने जाते हैं और इस कारण ही उनकी विशिष्ट विधा या उप विधा की श्रेणी निर्धारित होती है।

भारतीय परिदृश्य: सिंहावलोकन
भारत में विज्ञान कथा का पदार्पण एक मुख्य धारा के यर्थापरक गद्य साहित्य के रूप में हुआ। पहली हिन्दी विज्ञान कथा, आश्चर्य वृतान्त, अम्बिका दत्त व्यास ने लिखी जो मध्य प्रदेश के एक मुख्यधारा की पत्रिका में 1883-1884 के दौरान धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। मुख्य धारा के हिन्दी साहित्य में यह अपने ढंग की एक नई एवं अनूठी रचना थी जिसका प्रभाव आगामी साहित्य सृजन पर पड़ना तय था। इसी समय पश्चिम में, अमेरिका एवं युनाईटेड किंगडम में विज्ञान कथा साहित्य की धूम मच चुकी थी। निश्चय ही भारत में साहित्यकारों ने उस प्रवृत्ति का अनुसरण करने में विलम्ब नहीं किया। अपने समय की मशहूर साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ ने बाबू केशव प्रसाद सिंह की कहानी ‘चन्द्रलोक की यात्रा’ (भाग एक, अंक 6) वर्ष 1900 में छापी। किन्तु आश्चर्य है इसे तत्कालीन भारतीय साहित्यकारों ने साहित्य की श्रेणी में न रखते हुए एक दूसरी कहानी को पहली हिन्दी कहानी का दर्जा दे दिया। सरस्वती ने आगे भी कई विज्ञान कथायें प्रकाशित की (जैसे आश्चर्यजनक घंटी-सत्यदेव परिब्राजक) मगर ये सभी मुख्य धारा की विज्ञान कथायें थी। उस समय विज्ञान कथाओं की कोई विधागत श्रेणी ही नहीं उभरी थी। इसी क्रम में राहुल सांकृत्यायन की 22वीं सदी (1924) भारत की मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं के एक ‘मील के पत्थर’ की इंगिति करती है। यद्यपि यह कृति आज के विधागत विज्ञान कथा के ज्यादा निकट है किन्तु तब (और अब भी) इसे मुख्य धारा के साहित्य के रूप में ही श्रेणीबद्ध किया गया है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, सम्पूर्णानन्द कृत विज्ञान कथा साहित्य भी मुख्य धारा का ही साहित्य माना जाता है।
भारत ही नहीं पश्चिमी दुनिया में भी तत्कालीन विज्ञानकथा साहित्य भी आरम्भिक दिनों में (1900-1940) मुख्यधारा के ही साहित्य के रूप में पहचान बना रहा था। यहाँ तक कि 1930 तक ‘‘साइंस फिक़्शन’’ नाम से भी लोग परिचित नहीं थे। आल्डुअस हक्सले की मशहूर कृति ‘द ब्रेव न्यू वल्र्ड’ (1932) मुख्यधारा-मीडिया के लिए ही लिखी गयी थी। 1937 के बाद जब जान डब्ल्यू कैम्पबेल जूनियर ने ‘ऐस्टाऊडिंग फिक़्शन’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया तब ‘विज्ञान कथा’ को एक विधागत पहचान मिलती गयी। एच0जी0 वेल्स एवं जूल्स वर्ने लिखित 1940 के पूर्ववर्ती का विज्ञान कथा साहित्य मुख्य धारा का साहित्य ही था। हाँ, एच0जी0 वेल्स ने इस खास तरह के साहित्य का नामकरण किया था-‘साइंटिफिक रोमांस’’।
भारत में विज्ञान कथा को मुख्यधारा-मीडिया में संगठित तौर पर लाने में यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ और नवल बिहारी मिश्र का अप्रतिम योगदान रहा, जिन्होंने 1930 के दशक से इस क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई। इन्होंने पहली बार विशेष रूप से जोर देकर यह स्पष्ट किया कि जो कहानियाँ वे लिख रहे हैं वे एक खास विधा के रूप में जानी समझी जाय जिसे ‘साइंस फिक़्शन या फैन्टेसी’’ कहा जाता है। नवल बिहारी मिश्र ने जहाँ पश्चिम-अ़मेरिका एवं यूरोपीय विज्ञान कथाओं की तर्ज पर ही अपना सृजन कर्म केन्द्रित किया, यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ ने विज्ञान कथाओं के एक सर्वथा मौलिक भारतीय स्वरूप को सामने रखा-उनकी कथाओं में भारतीय ‘लोकेशन, ’भारतीय चेहरे, जाने पहचाने पात्र प्रमुखता से दर्शित होते थे। यह उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता ही थी कि अपनी कहानियों में वे एक साथ ‘‘साइंटिफिक रोमांस’’ और ‘भारतीयपन’ का सन्तुलन बनाये रखते थे। इन दोनों प्रसिद्ध विज्ञान कथाकारों के कृतित्व की चर्चा पृथक से की जा चुकी है। (सिंह, 2002)
वर्तमान भारतीय परिदृश्य
यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ एवं नवल बिहारी मिश्र के विपुल संयुक्त योगदान के फलस्वरूप विज्ञान कथाओं की चर्चा मुख्य धारा के साहित्य में होने लगी थी और इनके प्रयासों से ही भारत में ‘भारतीय विज्ञान कथा’ का स्वरूप मूर्तिमान हो पाया। 1980 के दशक से भारत में भी विज्ञान कथा की दो धारायें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी थीं- मुख्य धारा की विज्ञान कथा और विधागत विज्ञान कथा। देवेन्द्र मेवाड़ी की विज्ञानकथा ‘सभ्यता की खोज’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी तत्कालीन सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुई। अरविन्द मिश्र की ‘एक और क्रौन्च वध’ धर्मयुग में तथा जाकिर अली ‘रजनीश’ की ‘एक कहानी’ धर्मयुग तथा ‘निर्णय’ इंडिया टुडे में प्रकाशित हुई। ये भारत की मेनस्ट्रीम विज्ञान कथाओं की प्रतिनिधि कहानियाँ बनी। उस समय ही सुरेश उनियाल की कहानियां ‘सारिका’ जैसी सुप्रसिद्ध कथा पत्रिका में प्रकाशित हो रही थी। आशय यह कि आम जन मानस में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार में विज्ञान कथायें मुख्यधारा में भी समादृत स्थान पर चुकी थीं। मगर दुर्भाग्य से इन सभी पत्रिकाओं का प्रकाशन बन्द हो गया। हाँ ‘नवनीत’ अभी भी प्रकाशित हो रही है और उसमें भी विज्ञान कथायें यदा कदा प्रकाशित हो रही हैं ।
भारतीय ‘विधागत’’ विज्ञान कथायें
भले ही मुख्य धारा की पत्रिकाओं का प्रकाशन अवरूद्ध होने से आम जनमानस तक विज्ञान कथाओं की पहुँच भी बाधित हुई किन्तु तभी कितनी ही हिन्दी विज्ञान पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा को ‘प्रोमोट’ करना आरम्भ किया- जिनमें विज्ञान प्रगति, विज्ञान, वैज्ञानिक, विज्ञान गरिमा सिन्धु, विज्ञान गंगा के नाम उल्लेखनीय हैं। किन्तु आश्चर्यजनक एवं अज्ञात कारणों से ‘आविष्कार’ पत्रिका ने ‘विज्ञान कथाओं’ से दूरी बनाये रखी। कालान्तर में राधाकान्त अन्थवाल के सम्पादकत्व में ‘विज्ञान कथाओं’ का प्रकाशन इस पत्रिका में शुरू हुआ किन्तु निरन्तरता कायम न रह सकी। विज्ञान प्रगति में जी0पी0 फोण्डके ने नियमित तौर पर विज्ञान कथाओं के प्रकाशन का सलसिला शुरू किया जो दीक्षा विष्ट और तदन्तर प्रदीप कुमार शर्मा के सम्पादकत्व में निरन्तरता बनाये हुए है। सहयोगी प्रकाशन ‘साइंस रिपोर्टर’ ने भी नियमित तौर पर अंग्रेजी में विज्ञान कथाओं के प्रकाशन का क्रम जारी रखा है। ये सभी विज्ञान कथायें यद्यपि कि ‘‘विधागत विज्ञान कथाओं’ के रूप में इंगित होती है मगर भारत के एक बडे क्षेत्र में बच्चों किशोरों में चाव से पढ़ी जाती है और वैज्ञानिक नज़रिये के विकास में इनकी निसन्देह बड़ी भूमिका है। विगत एक दशक से मात्र विज्ञान कथाओं को समर्पित ‘विज्ञान कथा’ निरन्तर भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति द्वारा प्रकाशित हो रही है। 
विवेचन एवं सिफारिशें
भारत में यद्यपि विज्ञान कथा अपने दोनों स्वरूपों-मुख्य धारा के साहित्य एवं विधागत साहित्य के रूप में पहचान स्थापित कर चुकी है किन्तु आज भी साहित्यकारों के एक बड़े तबके की उपेक्षा की शिकार है। मुख्य धारा की साहित्य की पत्रिकाओं में अब इन कहानियों के प्रकाशन की आवृत्ति बहुत कम है- कारण है भारत के साहित्यकारों में सामान्यतः इस विधा की समझ/अभिरूचि नहीं रही है। खास तौर पर हिन्दी साहित्यकारों की अहमन्यता के चलते एक ऐसी विधा जो बडे़ स्तर पर पाठकों में वैज्ञानिक नज़रिए का संचार कर सकती है, उपेक्षित बनी हुई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का प्रभाव जिस तरह आम जीवन पर बढ़ रहा है, एक ऐसे साहित्य से जो खुद मनुष्य की अस्मिता से जुड़ा है, की उपेक्षा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। हिन्दी साहित्यकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाता है और इसकी शुरूआत विश्वविद्यालयों में भारत सरकार की ओर से हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य के विभागों में विज्ञान कथा के पाठयक्रमों के आमेलन से भी हो सकती है। शिक्षाविदों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में विस्तृत संस्तुतियाँ पृथक से अवलोकनीय हैं। (पटैरिया एवं अन्य, 2011)
सन्दर्भ:
1. जान क्लूट एवं पीटर निकोल्स (1993) ,‘द इनसाइक्लोपीडिया आफ ’ साइंस फिक्शन, सेन्ट मार्टिन ग्रिफि़न, न्यूयार्क
2. सिंह, अजय (2002) ,हिन्दी साहित्य में ‘विज्ञान कथा, पी-एच0डी0 शोध प्रबन्ध, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर।
3. मिश्रा अरविन्द (2008) ,मेनस्ट्रीम एण्ड जानेर एस0एफ0: इमर्जेन्स एण्ड ट्रेन्ड्स इन हिन्दी विस ए विस वेस्टर्न लिटरेचर, शोधपत्र प्रस्तुति, साइंस फिक़्शन कान्फ्रेन्स, औरंगाबाद,http://indiascifiarvind.blogspot.in/2010/03/mainstream-and-genre-sf-emergence-and.html
4. पटैरिया मनोज, अरविन्द मिश्रा, राजीव रंजन उपाध्याय, एस0एम0 गुप्ता (2011), साइंस फिक़्शन इन इण्डिया (पास्ट, प्रेजेन्ट, एण्ड फ्यूचर) आयुष बुक्स, जयपुर।
5. मिश्रा अरविन्द, मनीष मोहन गोरे (2011) ‘Znanstvena Fantaskitana hindiju–pogled kriticara, UBIQ, 9, 2011. 
6. गीता बी एवं अमित सरवाल (2011) इक्सप्लोरिंग साइंस फिक़्शन: टेक्स्ट् एण्ड पीडैगोगी, एसएसएस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली। 
7. मिश्रा अरविन्द (2011) ‘‘द ओरिजिन्स’’, डाऊन टू अर्थ, साइ-फाई स्पेशल- पैरावल्र्डस, जनवरी 1-15, 2012।

Tuesday, March 27, 2012

वैज्ञानिक पुराकथायें: एक पठनीय पुस्तक

अभी हाल में ही यह कृति मुझे पढने के लिए मिली थी .यह पुस्तक बहुत ही भरोसेमंद तरीके से यह बताती है कि मौजूदा कितनी ही जुगतें, मशीनों के बारे में हमारे पुरखों ने सोचा था मगर चूंकि  तब  सटीक टेक्नोलोजी नहीं सुलभ थी इसलिए उनकी सोच बस महज कल्पनात्मक  पौराणिक कहानियों के धरोहर के रूप में आज हमारे पास है .कार्ल सागन जो कभी ख्यात अमेरिकी पत्रिका टाईम द्वारा 'शो मैन आफ साईंस " की पदवी से नवाजे गए थे , ने  कभी कहा था कि अगर कल्पना की उर्वरता देखनी हो तो भारतीय पुराणों का पारायण करना चाहिए .आधुनिक विज्ञान कथाओं (साईंस फिक्शन ) में जिस तरह भविष्य की टेक्नोलोजी का पूर्वानुमान किया जाता है ठीक वैसे ही मानों हमारा पुराणकार सूदूर भविष्य के सपने देख रहा हो ...उनके द्वारा कल्पना प्रसूत अनेक युक्तियाँ और उपकरण तो ऐसा ही आभास देते हैं ..इसलिए ही अगर विज्ञान कथाओं को समकालीन मिथक कहा जाता है तो यह उचित ही है ...

मिथकों में विज्ञान कथात्मकता की खोज मेरा भी प्रिय विषय रहा है इसलिए जब डॉ .राजीव रंजन उपाध्याय की यह पुस्तक मेरे सामने आयी तो जिज्ञासा स्वाभाविक थी .आद्योपांत पुस्तक मैंने पढी और लेखक के श्रम और प्रस्तुतीकरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा ...लेखक ने महाभारत और श्रीमदभागवत के महासागर से चुन चुन कर श्रमपूर्वक उन कहानियों  का संकलन किया है जिनमें मानों मौजूदा ही नहीं भविष्य की अनेक संभावित तकनीकों का पूर्वावलोकन होता हो .इसलिए पुस्तक का नाम वैज्ञानिक पुराकथायें उचित लगता है ,

पुस्तक के २६ अध्यायों में उन रोचक पुराकथाओं  की पुनर्प्रस्तुति की गयी है जिनमें कोई न कोई कल्पनाशील वैज्ञानिक युक्ति/जुगत का पूर्वाभास है .जैसे अमरता के लिए संजीवनी बूटी का प्रसंग ,मय  दानव द्वारा अन्तरिक्ष  -शहर बसाया जाना ,अद्भुत अस्त्र शस्त्र ,विमान,चिर यौवन के आकांक्षी राजा ययाति की कथा ,अन्तरिक्ष में  औंधे मुंह लटके त्रिशंकु की व्यथा ,महर्षि च्यवन के यौवन पुनर्प्राप्ति की कथा आदि ..आज इन सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोधरत हैं -अन्तरिक्ष स्टेशन तो कबका बन भी चुका ...और कोई आश्चर्य नहीं कि निकट या सुदूर भविष्य में हमारी पुराणोक्त दुनिया हकीकत में बदल जाय ...

पुस्तक बहुत रोचक है हालांकि इस अपेक्षाकृत छोटे कलेवर में पौराणिक कहानियों के अपार भण्डार से कुछ ही रत्न यहाँ संचयित हो पाए हैं ...मुझे आशा है लेखक इस दिशा में अपने प्रयासों से आगे भी ऐसी दस्तावेजी कृतियाँ पाठकों के समक्ष लाने का अनुग्रह करेगा .पुस्तक पढने की जोरदार सिफारिश है.

समीक्ष्य पुस्तक : वैज्ञानिक पुराकथाएँ 
प्रकाशक: आर्य प्रकाशन मंडल ,
९/२२१,सरस्वती भंडार ,गांधीनगर 
दिल्ली -११००३१
मूल्य :१३० रूपये ,पृष्ठ -104 

Saturday, March 17, 2012

Science Literature in Hindi Language: A Bird Eye View


Science Literature in Hindi Language: A Bird Eye View

Arvind Mishra* and Bhise Ram** 
*President, Science Bloggers Associatioan Of India
16, Cotton Mill Colony, Chowkaghat ,Varanasi – 221002
**Assistant Professor, Communication Skills, Department of FE &H,
Saraswati College of Engineering, Khargpur, Navi Mumbai -410209

          Science writing in Hindi appears to have began in 1818 (Patariya, 2000) with the publication of a magazine named “Hindi Digdarshan,” copies of which were circulated to many schools in West Bengal.  ‘Digdarshan' regularly incorporated materials on science, a trend that was not in vogue at that time even in contemporary reputed Hindi publication 'Udant martand' (1928) credited to be the first Hindi newspaper.
            Patairiya (2000) further narrates that a questionnaire related to chemistry way published in Hindi, named, "Rasayan Prakash Prashnottar' in 1847 by Agra School Book Society. The trend was followed with subsequent publications of 'Saral Vigyan Vitap' (1860), Sulabh Beej ganit” (1875) and ‘Gati Vigyan’ (1885) from various academic institutions. Efforts were also made to translate notable works of English scientific publications into Hindi language during that period.
The Beginning
Science writer Shiv Gopal Mishra (2001) considers the period of 1840-1914 as the 'Emergence period of Hindi science writing. This early beginning was followed by a prolonged period of Hindi science writing characterized by the sporadic writings and publications of Hindi science articles in different publications by many science enthusiasts and writers like Pandit Sudhkar Dwivedi , Pandit Laxmi Shankar Dwivedi, Pandit Laxmi Shankar Mishra and Shri Mahesh Charan Sinha. Such prolonged period of Hindi science writing in fact paved the way for establishment of some full fledged organizations devoted solely to science writing, prominent among them being “Vigyan Parishad Prayag' established on 10 March 1913. The 100th anniversary celebrations of this august body devoted to science writing began on the 13th March 2012 and were inaugurated by our esteemed Ex. President A P J Abdul Kalam.  Vigyan Parishat initiated the publication of a monthly magazine 'Vigyan' in 1915 which is being ceaselessly published since then. The magazine Vigyan has attracted the attention of so many budding young science writers and provided them a suitable platform where they could get their articles published easily. Many today's well know Hindi Science writers have had written once for Vigyan routinely or intermittently.
The proliferation
            The period of 1950-1970 has been marked as a 'phase of proliferation' of Hindi science writing as ample amount of literature related to many newer branches  of science started appearing in various publications. Prominent science writers of this paned were Dr. Satya Prakash, Professor Phuldev Sahay Verma, Dr. Nand Lal Singh, Shri R.D. Vidyarthi, Dr. Om Prakash Sharma etc. Yet another period which witnessed the setting up of 'Paribhashic Shabdavali Aayog' (The commission for scientific and technical terminology) commenced in 1950 and also witnessed establishment of many Hindi academies, appearances of many eminent science writers, translators  like Suresh Singh, Ramesh Bedi, Dr. D.S. Kothari, Dr. Gorakh Prasad, Dr. Satya Prakash, Dr. Atmaram, Dr. Ram Charan Mehrotra, Shri Shyam Narayan Kapur, Shri Jagpati Chaturvedi . These writers contributed immensely to the enrichment of Hindi Science writing. Dr. Shiv Gopal Mishra (2002) has termed this period (1950-1970) as 'Sarvottham Kal' i,e. prospering period of Hindi Science writing. Many other writers of prominence were Shri Ramesh Datt Sharma, Shri Vishnudatt Sharma, Harish Agrawal, Gunakar Mule, Premanand Chandela, Kailash Shah etc.
Modern phase                                                                                               
Critics tend to agree that modern phase of science writing in Hindi began around 1970’s with the publication of good quality science books for academic institutions. Translation work also got new impetus during this work mostly with the help of university professors. Profuse scientific literature of many emerging disciplines of science came to fore which included environmental imbalance, information technology etc. Many present day science writers shaped their career or hobby of writing science in their mother tongue i,e. Hindi during early 70's or 80's ,prominent among them being Premanand Chandola, Schukdev Prasad, Devendra Mewati, Braj mohan Gupta, Manoj Patariya , Vinita Singhal, Arvind Mishra, Jagdip Saxena, Vijay Kumar Shrivastava, Ranbir Singh etc. During 1980's science fiction writing also got an impetus with the efforts made by Indian Association of Science Fiction Writing (IASFS) which promoted works of science fiction writers like Zakir Ali ‘Rajnish’, Zeashan Haidar Zaidy, Kalpana Kulshrestna, Bushra Alwera, Dr. Arvind Dubey, Manish Mohan Gore, Arvind Dubey  etc. Many renowned science writers also got inclined towards science fiction writing like Shukdev Prasad, Devendra Mewadi, Arvind Mishra, Rajiva Ranjan Prasad etc. whose works now form the corner stone of science fiction writing in Hindi.
The Terminology
            A widespread misunderstanding still persists among many science writers about terminology, forms and categorization of different subgenres of science writing. With the passage of time science writing has genuinely diversified itself into many sub genres in Hindi language too. For example popular science writing has now completely established itself as a conspicuous and distinguished subgenre of science writing but still today it is often mistakenly referred to as science writing only. It is indeed science writing but a very special form of science writing which aims to have a direct rapport with common people.
            As a matter of fact science writing in general is a kind of very specific form of writing and is practiced and understood by a very limited audience i.e. by scientists only. With passage of time, it has got so specialized that even two of its practitioners cannot understand the writings of their 'specific' subjects. On other hand popular science writers make their writings very lucid and easily understandable by even a common man. So in our humble opinion popular science writing should never be designated as merely 'science writing' but science writing of a very distinguished form and must always be labeled clearly as popular science writing.
            The science writing of yore also adopted a new lexicon/term   of ‘science journalism' and later as science communication. The use of 'science communication' is currently in practice. But there is again a need to make a demarcation in between ' science communication ' and 'popular science communication’. It is heartening that Hindi science writers have lately began to understand such nuances and subtleties of the subject.
Different subgenres and media
            Hindi science writing too has gained enormous popularity in various media i.e. print, broadcast and lately the digital media. Newspapers, magazines usually publish news and articles and even fiction stories on science. All India Radio and different T.V. channels and cables now regularly broadcast ‘stories ' on science.  Government of India has also funded such programmes through National Council for Science and Technology Communication (NCSTC) and Vigyan Prasar. Many Hindi science blogs are increasingly inviting attention of the audience of digital medium.  Science Bloggers Association of India regularly publishes popular science write- ups/posts on various scientific subjects in Hindi and has an appreciable blog popularity index. (Darshal Lal 2012).
            Various forms/subgenres of science writing including science news, science articles and essays, science drama, science poem, science fiction, science fiction, science reports, science features are popular amongst Hindi audience. Hindi magazines have immensely contributed to the enrichment of popular science since as early as 1880's when magzines like 'Kavi Vachan Sudha' (1867), Harischandra magazine (1875), Hindi Pradeep (1877)' showed interested in publishing scientific essays regularly. Reputed Hindi literature magazine ‘Sarswati' published not only scientific articles but even science fiction stories from its very first issue which appeared in 1900. Sarswati regularly published science articles and essays till 1950 after which its publication became erratic. In 1915, Vigyan Parishad Prayag initiated publication of ‘Vigyan’ a magazine solely devoted to science in 1915.  Other magazines which were of prominence but got discontinued were. Vigyan Lok, (1960), Vigyan Jagat (1961), Gyan Vigyan (1979), Vigyan Bharti (1978), Vigyan  Vaichariki(1980),Paryavaran Darshan(1980),Vigyan Vithi (1981), Vigyan Puri (1981). Noteworthy contributions to popular Hindi science writing have particularly been made by Vigyan Pragati, a CSIR magazine and Avishkar (NRDC) which are being regularly published. Eklavya', a magazine solely for children is also being published from Bhopal, Madhya Pradesh 'Vaigyanic' (by BARC, Mumbai). “Vigyan Ganga” (Hindi Council, Central secretariat) and ‘Vigyan Garima Sindhu' (The commission for scientific and technical terminology, New Delhi) are magazines which are still regular and publishes quality science articles. 
            This account of science writing in Hindi is only a bird eye view and in no way a complete description of its origin, trends and status. For further studies readers are recommended to refer the following literature   in order to a have a comprehensive picture of science writing in Hindi language.
            The organizers of this first science  literature conference under the aegis of Mrathi Vigyan Parishad ,Solapur ,Maharashtra have done a commendable work in providing an opportunity and a common platform to science writers of various Indian languages. Such events are of great importance as they not only present a holistic picture of science writing in the country but also develop camaraderie and cooperation amongst writers of different regions and tastes.   
References :-
1.         Mishra, Shiv Gopal (2001), “Hindi Men Vigyan Lekhan ke Sau Varsh (100 years of science writing in Hindi) Vol 1, Vigyan Prasar, New Delhi.
2.         Mishra, Sihv Gopal, (2001), Hindi men Vigyan Lekhan ke Sau Varsh (100 years of science writing in Hindi) Val II, Vigyan Prasar, 2001, New Delhi.
3.         Mishra, Shiv Gopal and Vishnudatt Sharma (2002), Swastantrata Parvarti Hindi Vigyan Lekhan 'Hindi science writing after independence (part 1), 1950-1970, Bhartiya Prakasham Sansthan, Dariyagant, New Delhi.
4. Patariya Manoj (2000), Hindi Vigyan Patrakarita (Hindi Science Journalism), Takshshila Prakashan, Dariyaganj, New Delhi.
5.         Lal Darshan, Indu Arora, Arvind Mishra & Zakir Ali. 'Rajnish' (2012), Role of science blogs in developing scientific temper through digital media, pre-proceedings, Internaterial conference in Science Communication for scientific temper , 10-12 January 2012, New Delhi (NISCAIR, CSIR, Vigyan Prasar & NCSTS’s joint venture).          
    PS: Paper was presented by the second author in "First Vigyan Sahitya Sammelan"  i.e. First Science Literature Conference  organised by Marathi Vigyan Parishad ,Solapur Vibhag (chapter) held in Solapur,Maharashtra on 17-18 March ,2002.  

Thursday, March 1, 2012

India and Science-Fiction – Like Two Peas in an Escape Pod!


India
and Science-Fiction – Like Two Peas in an Escape Pod!

India is no stranger to the instincts which lie behind science-fiction. Ancient mythologies talk of flying machines for example.

Evidence of science fiction in India can be found as far back as 1500 BC in the ancient Vedic literature. In these texts, there are many descriptions of unidentified flying objects referred to as “vimanas.” These “vimanas” can be of two types: “manmade crafts that resemble airplanes and fly with the aid of birdlike wings or un-streamlined structures that fly in a mysterious manner and are generally not made by human beings”.

The impulse to describe what other worlds might be like and how mankind could fashion new devices and manners of behaving is surely common to many cultures – in this, Indian culture is no different. 

Why India needs science-fiction like never before

India is a powerful emerging player on the world's technological stages. Just one example can illustrate this point: from a base of 6800 IT-related knowledge workers in the mid-1980s, the population expanded exponentially to as many as 522,000 in the early 2000s. What's more, by 2015 this number will have increased to 3.5 million workers – outdoing even the USA itself. Yet compare the mainly US tradition of science-fiction during the Golden Age with that of its Indian equivalent. Whilst the integrity and historical precedents of the Indian example are not in doubt, in quantity and level of output, if nothing else, the US clearly surpasses anything India has produced.

The US has, of course, had a much longer and deeper relationship with technology. Its earlier manifestations of a rather “hard sci-fi” – where narratives and character development played a secondary role to that of imagining new environments, gadgets and beings – certainly fed off this fascination and practice with new technology and scientific progress in the real world. But it wasn't a parasitical relationship as such. If anything, it would be better described as symbiotic. Yes, cars  were invented and manufactured by the Henry Fords of this world before many science-fiction writers imagined them flying – but, equally, TV programmes like “Star Trek” in the 1960s appeared to have imagined the iPad long before it was thrust, just a few years ago, on an unsuspecting world.



After all, you can't create a new world without imagining it first. 

Which is where, if you're need a reason to put India and science-fiction together, you will surely find the evidence you're looking for. There are bound to be Indian writers who have both the imagination and the forethought to be able to create their own dystopian sci-fi worlds without the need to jump on a cruise ship and experience the US sci-fi experience. 

A new literature, a new way of seeing the world

In the light of the US experience, then, isn't it clear where India needs to head? With a mushrooming population of technology-savvy workers able to create, reprogram, hack into and profoundly understand almost every new device and technological advance, the potential market for science-related content is ripe for a new literature – a literature which builds on India's honourable legacy and yet, at the same time, manages to free it from the past.

In a country as profoundly complex as India, science-fiction is perfectly positioned to devise those alternative and parallel universes of thought – universes which have already allowed very many other cultures to examine themselves not only intelligently but also safely; not only from a distance but also with perspicacity.

Imagineers of our societies

If science-fiction can offer a nation like India anything, it is the freedom to imagine its future. In a world which is now changing so quickly, the future is too important to be left in the hands of just the politicians, scientists or educators. For writers – perhaps the first group of knowledge workers which ever existed – also have their noble place.

Without technology, these days most writers would be lost. But without writers – imagineers, if you like, of the very tapestry of our societies – so would everyone else.

In science-fiction, technology and the writerly arts are bound as one.

And India will need both – if she is to advance with any wisdom into the brave new world which surely awaits.


 This article is written by Katie Corder who has introduced himself as a professional copy writer for science fiction in India ..looks interesting! Isn't it? 

Friday, January 13, 2012

Mythological Ideas for SF Story Themes: A Novel Approach of Effective Science Communication among Indian SF Audience


Paper presented in International Conference on Science Communication for Scientific Temper held on 10 - 12 January 2012 at NASC Complex, PUSA, New Delhi,India 

Author as chair person of the session on science fiction and SF dignitaries on dais   
Mythological Ideas for SF Story Themes: A Novel Approach of Effective Science Communication among Indian SF Audience
Arvind Mishra
Indian Science Fiction Writers’ Association,
16, Cotton Mill Colony
Chowkaghat,
Varanasi -221001
U.P.
Email:drarvind3@gmail.com
Abstract
Indian mythology as contained in Indian scriptures abounds in imaginative ideas. Carl Sagan was very impressed by these sources of ancient knowledge and once appealed SF writers to delve deep into Indian mythology to get original SF theme ideas. Many of such imaginative dreams of our ancestors are still in queue to be realized in want of appropriate technology though many have already seen the light of the day!

There are extrapolations, imaginative themes, and descriptions of gadgets in contemporary sf and in Indian mythology often quite alike. In Ramayana for example, there is a description of a very special kind of aero plane infused with artificial intelligence and emotions named Puspak Viman (Remember, Rendezvous with Rama by Clarke?). Puspak Viman also possesses a vacant seat always for any last minute VIP entrant! Sudarshan Chakra (a kind of revolving disc) and specially designed arrows used by Lord Krishna and Lord Rama in war fields return to them immediately after hitting the target (Guided Missiles!). Maya Yuddhaa (A kind of illusory /virtual war) as described in the epic Ramayana causes no real damage to enemy soldiers but is practiced only to frighten enemies who ultimately surrender owing to all sorts of dreadful imagery. These stories have been very popular among masses and such ideas could very well be used in modern Sf story writing with ingenuity in order to woo Indian SF audience.

A survey was made to find out such imaginative ideas in our scriptures which could be used in conjugation with modern technological developments in Sf stories so as to attract Indian audience to the genre and also to inculcate scientific temper in masses. Findings are presented and discussed.

                                                                        Introduction

There is a temptation to draw analogies between science fiction and mythology among science fiction (SF) aficionados. SF like mythological imaginations depicts a world which is contemporarily non existent and remains very unfamiliar to its readers. Science fiction (SF) has often been stated therefore to be a form of contemporary mythology (Patricia Warrick, 1978). There are indeed strange and interesting similarities in both SF and mythology. Science fiction as we know it today is largely about strange new ideas and imagery –features which characterize mythological stories as well. Only significant difference lies in the reasoned application and description of technology in SF. Myths lack such approach understandably because technology as we witness today was not in existence in earlier times. Ideas nevertheless are no less important which have been found to pave the ways for new inventions. “Ancient wisdom” could be enriched and supplemented with modern technology in SF (Brain Aldiss, 1986). Mythological ideas when complemented with modern technology could give rise to wonderful sf themes.

On the above premise a survey work was envisaged to search for ideas and concepts in Indian mythological stories for the purpose of using them in various print and electronic SF media in order to impart the intended scientific knowledge in lucid ways in targeted Indian audience. Some preliminary survey findings are elaborated and documented here. 
 There is however a caution that the mythological stories must not be taken as the incidences and events described in them having been actually happened in remote past.  They should be taken as ideas only and be judiciously used in context to present day knowledge of S&T. As an instance I must quote here an example how I used an idea from a mythological story of King Pradyumn, son of Lord Krishna and demon Sambrasur  in which child Pradymn’s age is accelerated in a ritual in order to make him strong enough to defeat the mighty and invincible demon. I used this very idea in my story entitled ‘Alvida Professor-Good Bye Professor’, (Mishra, 2001) to accelerate the aging of the main protagonist by imagined technology of growth genes being inserted in man’s genome at embryonic stage in order to accelerate his aging process and face the tough situations of the harsher future world without being dependent on the parents for a very long time. Here the abracadabra of the myth was replaced by a logical and scientifically provable technology. We know that parental care is a long time affair in humans as the children could fend for themselves only after they are over adolescent age. The example may be a guide line in using mythological ideas in similar vein and could invariably be incorporated with technologies taking clues from modern S &T. Similar approach could be employed by SF writer while dealing with the cited mythological ideas here.



 Survey Findings: Theme Ideas
  
An array of interesting ideas was retrieved from various works of Indian scriptures and related literature, critiques and commentaries. Ramayana and the Mahabharata are treasure troves of science fictional imaginative ideas (Deshpande, 2011). Such ideas were pin pointed and categorized under following themes.

Alien Worlds  
Mythological stories have descriptions of many worlds (i.e. Loka in vernacular) other than the earth viz.,Pataal Lok  (an imaginary world underneath the Earth). A description has already given by Srinarhari (2007). He has provided with a vivid description pf many worlds akin to alien words of SF fantasies. A fairy world called Gandharvalok ,  Chandralok (the land of moon); Nagalok (the world of serpents )and so on so forth. Likewise, Yaksha lok; Kinnara lok; Matsya lok (an underwater world which has mermen and mermaids: human bodies resembling fishes usually with divine qualities.) Lucid accounts of heaven and hell- worlds beyond the earth have also been given in our scriptures along with fascinating interwoven plots which may ignite SF writers to take up new story plots in light of emerging and predicted technologies though such imagined bizarre worlds are already being depicted in many SF  movies. Recent movie Avatar is a case in point where the concept of “Avatar” (the incarnation) of Indian myth has been replaced with a downloading of entire memory of a protagonist into a genetic replica of the protagonist in an alien world where he looks like Krishan of our legends.

Celestial Abodes
In Mahabharata there is a story of Trishanku –a celestial body which is described to have been projected into space by one sage Vishwamitra. This looks like imaginative leap of ancestors of the land indicating that the sky could be conquered by man one day! King Trisanku, according to Indian mythology, decided to perform a great sacrifice which would enable him to ascend bodily to heaven. Sage Vishwamitra assisted him in this pursuit. But in heaven, Indra, the king of gods barred his entry, and Trisanku was thrown back to earth from the celestial abode of the gods. Sage Viswamitra in rage started creating new constellations and new forms of life and became a threat to the work of Brahma (the creator in the Hindu trinity, others being Vishnu, the preserver and Lord Shiva a destroyer).In the tussle which ensued  Trisanku was made immortal by stopping his downward fall midway between heaven and earth. Since then he has been hanging up above the earth as the story narrates it.

In 1945, Arthur C Clarke wrote an article published in Wireless World that placing three geostationary satellites (Compare Trisanku!) above the equator would revolutionize global telecommunication. Thus a mythological idea that objects can be made to appear stationary above the Earth found a place in science fiction. In 1964, Syncom, a man made satellite was placed above a fixed longitude on the equator, and a myth became a reality when supplemented with appropriate technology. Further space stories could be based on the idea.

Space Travels
There are many descriptions of flying machines called ‘Vimans’ in Indian epics. Air travel can be traced back in descriptions of ‘Pushpak  Vimana' an aero plane which has been shown to possess even emotions.(Remember, Rendezvous with Rama by Clarke) . Pushpak Vimana also possesses a vacant seat always for any last minute VIP entrant! Idea of machines with emotions like Pushpak Viman is very curious and sf stories could be based on generation voyages in which the space shuttle remains an intelligent and emotional body.

Mythological stories depict   interstellar travels too in interesting ways. Narada a humorous protagonist and at the same time a sage with prophetic vision is often referred to as 'thrilok sanchari ' that is one who could travel in all the conventional worlds namely, the Earth, Paradise and the Hell or even to underground worlds  and may instantaneously reach to any part of the universe. Present day SF writing has a penchant for such interplanetary, interstellar travels where traveling with speed of light and even faster and going back in to past instead of future offers many amazing story plots to work upon.

War Weapons 
There are war weapons like Sudarshan Chakra - the circular disc weapon of god Vishnu which could chase the enemies to kill them wherever they might go for shelter. Sudarshan Chakra and specially designed arrows used by Lord Krishna and Lord Rama in war fields return to them immediately after hitting the target (Compare Guided Missiles!) Arrows like ‘Narayanaashtr’ and ‘Brahmaashtra’   have been depicted as weapons of mass destruction but vary in powers of their destruction and effect in different situations. They could cause instantaneous rains or fire and could even split the Earth or the sky into pieces. Countering arrows by hero protagonists could neutralize the effect of the enemy's attack. Could we work out on such ideas in light of existing technologies to provide a future world equipped with similar weapons in SF stories? Like Maya Yuddhaa (a kind of illusory /virtual war) as described in the epic Ramayana causes no real damage to enemy soldiers but is practiced only to frighten enemies who ultimately surrender in horrifying situations! Such ideas often pave ways for new technologies and would remain lively and inviting sources for SF writers.

Tele-viewing and Telepathy
Idea of tele-viewing is very well present in Mahabharata. A protagonist Sanjaya helps visually handicapped King Dhritrashtra witness the war vividly, much as if it was the live telecast of today. Further Hindu Gods have been shown equipped with powers to know what is going on the minds of their devotees or enemies. This is a fascinating idea to know what’s going on minds of people sitting opposite while discussing issues of strategic importance. This becomes even more important as language is an imperfect way of expressing thoughts .Mythological ideas as such may be explored further for a technological breakthrough to allow mind to meld into mind directly and instantly, thought into thought so that a telepathic society can exist (Asimov, 1981). Could we know the mind of a person opposite to us with the help of any imagined plausible technology? SF writers could try out such ideas.

Cloning and Genetic Engineering

In Mahabharata the birth of ‘Kauravas’  –sons of King Dhritrashtra, 100 in numbers is described to have been resulted from fetus of premature birth. An imagination what modern cloning technology has made possible! Today’s 'test tube baby' technique is a case in point. We could further explore ideas and scientifically proven technologies as such to write SF stories. .

Time Travel
There are umpteen episodes of time dilation and travel in Mahabharata notably of King Raivat who goes to meet Brahma, the creator and finds to his utter dismay that many generations have passed on earth when he returns back. Such stories amply provide glimpses of richness of prophetic vision of what ancient writers possessed and technologies emerge and could be conceived many fascinating SF stories may see the light of day. 
Parallel Universe
This concept is also found in mythology expressing an infinite number of universes, each with its own gods. A bird (crow) protagonist named Kakabhusundi in Ramcaritamanasa -an epic work by Indian medieval saint poet Tulsidas has been depicted to enter to mouth of Lord Rama, reaches to his belly and beholds many ‘Brahmand” (i.e. Universe in modern lingo.) 

Thus narrates Kakabhusundi “I beheld multitudinous universes with many strange spheres each more wonderful than the rest, with countless stars, suns and moons, innumerable mountains and vast terrestrial globes …..Everything I saw had a distinctive stamp of its own universe…..”( Sri Ramcharitamaanas, Uttar Kaand ,80,1-4) Idea of parallel /alternate universes is fascinating and is the theme of many modern SF stories and many more could be written employing similar themes.

Eternal Youth, Reverse and Accelerated Aging
Story of king Yayati as described in Mahabharata provides a strange account how an aged King exchanged
his age with the youthfulness of his youngest son and returned it to him later. In yet another story the aging process of Pradyumn as described above is accelerated in a ritual in order to make him strong to kill the demon.

Discussion

Carl Sagan(1985)  was very impressed by ‘ancient Indian wisdom’  and once appealed SF writers to delve deep into Indian mythology to get original SF theme ideas.

In such myth inspired SF stories Indian audience is easily lured as they have grown up with similar mythical concepts and ideas (Srinarhari,2008) .Thus imparting of modern scientific and technological developments through such innovative approach becomes tenable (Mishra, 2010). Recent film Avatar is a befitting example which became very popular among Indian audience as it has many Indian mythological elements cleverly interwoven with its plot.


Myths generally focus on superhuman characters the way superheroes are depicted in SF stories. Both mythical and SF stories usually deal with super realistic (surrealistic) stuff. While myth is usually regarded as true accounts of the remote past (though they are actually fanciful ideas only), SF deals with hitherto non existent worlds and by that implication the worlds of future or even distant future. Presently various formats of story telling are being employed involving  mythological features to reach among greater audiences for a widespread communication across the globe .Various elements of myth could now be found in visual SF movies and television shows. The basis of modern storytelling here seems to be deeply rooted in the mythological tradition. Mythological archetypes such as the cautionary tales regarding the abuse of newly gained knowledge, battles between gods, and creation stories are lately the subject of some SF film productions. Such films are often created under the guise of cyberpunk, thrillers, action cinema; apocalyptic tales etc which are nothing but different subgenres of SF. Films such as ‘Clash of Titans’   and ‘The Immortals’   exhibited a trend of mining traditional mythology in order to directly improve a plot for modern consumption. 

Conclusion
Present work empathically indicate that  Indian mythology coupled with today’s technological breakthroughs   could give a wide spectrum from which the modern SF writer can pick and choose to create unique works of science  fiction.
References
Aldiss Brian, ‘Ancient Wisdom’, Trillion Year Spree, 1986.

Asimov Isaac., Asimov on Science Fiction, Panther Granda Publishing Ltd, 1981.

Deshpande Y.H., Science Fiction: A Bird Eye View, Science Fiction in India, Ayush Books, Jaipur, 2011.
 Mishra Arvind ,(2001) , “ Alvida Professor”,  Vigyan Pragati  ,April 2001, NISCAIR  Publications ,New Delhi ,pp 22-25.
Mishra Arvind, Ek Aur  Kraunch Vadh (Hindi ) ,Lok Sadhna Kendra publication, Varanasi, 2008.

Mishra Arvind ,Manoj Mishra  (2010) ,Innovative SF and Mythology Mix to Communicate S&T to Indian Masses ; 11th International Conference on Public Communication of Science and Technology ,December 6-10,New Delhi ,India


Patricia Warrick, Science Fiction: Contemporary Mythology, Harper and Row Publishing Ltd, 1978.
 Sagan Carl, Cosmos, Ballantine Books, 1985.

Sri Ramacaritamaanas, Uttar Kaand , 80,1-4,Gita Press ,Gorakhphur,1968.

Srinarhari, M H (2008),Koi Mil Gaya –India’s First Science Fiction Film,http://www.concatenation.org/articles/koirevised3.html
Paper should be referred as follows -
Mishra Arvind (2012) ,Mythological Ideas for SF Story Themes: A Novel Approach of Effective Science Communication among Indian SF Audience,Pre-Proceedings, International Conference on Science Communication for Scientific Temper ,10-12 January, 2012,New Delhi,pp. 213-217.